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________________ सशक्त श्रम में ही श्री का निवास है भूमण्डल पर मानव ही एक ऐसा प्राणी है, जो श्री का उपासक है, लक्ष्मी का अभिलाषी है और रात - दिन धन के पीछे अन्धा होकर दौड़ने वाला एक पागल व्यक्ति है। मनुष्य लक्ष्मी की उपलब्धि के लिए क्या - क्या वहीं करता ? धन के लोभ में वे अन्धे व्यक्ति भी मिलते हैं, जिनमें कितने हो पितृहन्ता हैं, मातृहन्ता हैं, भ्रातृहन्ता हैं, पुत्रहन्ता हैं और पुत्रीहन्ता भी हैं। एक और हन्ता भी हैं, जो अभीष्ट दहेज न लाने के कारण पुत्रवधु एवं पौत्रवधु तक की हत्या कर देते हैं अथवा उन्हें प्रताड़णाओं के द्वारा स्वयं हत्या करने के लिए मजबूर कर देते हैं । धन की अभितृष्णा में विक्षिप्त व्यक्ति झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, अपने - पराये का भी कोई अर्थ नहीं रखते हैं। उन्हें तो बस धन चाहिए । समाचार पत्रों में ही नहीं, प्रत्यक्ष में देख सकते हैं कि जीवन-रक्षक औषधियों में भी जीवन-भक्षक विष तत्त्वों की मिलावट करते हैं। पौराणिक ग्रन्थों में पिशाचों, दैत्यों एवं दानवों का वर्णन पढ़ा या सुना होगा। किन्तु, प्रत्यक्ष में आज भी यदि आप पिशाच और दैत्य देखना चाहते हैं, तो प्रत्यक्ष में इन नररूप धारी धन-लुब्ध दैत्यों - पिशाचों को देख सकते हैं। परन्तु, इन धनलुब्ध मानवों को विचार करना चाहिए-लक्ष्मी एक दैवी सम्पत्ति है, उसका साक्षात्कार, दर्शन या उपलब्धि अन्यत्र कहीं नहीं है । उसका दर्शन हो सकता है, एक मात्र श्रम में । श्रम में ही 'श्री' का निवास है। पुरुषार्थ युक्त हाथ के मन्दिर में ही 'श्री' देवी विराजमान है। प्राचीन महापुरुषों ने उक्त सन्दर्भ में उचित ही कहा है-'कराग्रे वसते लक्ष्मी।" ९४ चिन्तन के झरोखे से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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