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में रमणशील योगीजनों का एक ही आदर्श रहता है-बन्धन-पुक्ति । अच्छा हो या बुरा हो-बन्धन, बन्धन है । अतः उनकी दृष्ट में स्वर्ग - नरक दोनों ही अनुपयोगी हैं। नरक, भय के द्वारा जनमानस को शासित करता है और स्वर्ग प्रलोभन के द्वारा। प्रस्तुत प्रसंग पर मुस्लिम महिला संत राबिया याद आ जाती है।
राबिया निष्काम चेतना की धनी थी। नरक के भय से भी मुक्त और स्वर्ग के प्रलोभन से भी । अतः वह कभी कहीं जातो, तो एक हाथ में पानी का घड़ा रखती और दूसरे हाथ में जलती मशाल । लोग आश्चयं से पूछते-राबिया, यह क्या माजरा है ?
वह उत्तर देती-"नरक के भय और स्वर्ग के प्रलोभनों ने साधक की धर्म-साधना की निष्काम - भावना को दूषित कर रखा है। कुछ लोग नरक के भय से ग्रस्त हैं, तो कुछ लोग स्वर्ग के सुखोपभोगों के प्रलोभन से। मैं जल - घट के पानी से दोजख (नरक) की आग बुझाना चाहती हूँ और इस प्रज्वलित मशाल से बहिस्त (स्वर्ग) को भश्म कर देना चाहती हैं, ताकि धर्म - साधक निष्काम भाव से धर्म के सत्पथ पर अग्रसर हो सके।
भारतीय सन्त हो. महिला सन्त राबिया हो या अन्य कोई हो, ये उच्च - स्तरीय साधक हैं। इन्हें स्वर्ग - नरक से कुछ लेनादेना नहीं। प्रश्न है, कामना - प्रधान साधरण जन का। वे स्वर्गनरक के वर्णनों पर से ही यदि कदाचार से बचकर सदाचार के मार्ग पर चल सकें, तो अच्छा है। चिन्तन की कसोटो पर नरकस्वर्ग के स्थान-स्थिति आदि के सम्बन्ध में सम्भव है कुछ विचारकों को कल्पित अंश भी मालम पड़े । मैं स्वयं चिन्तन का मुक्त पक्षधर हैं। किन्तु, मुझे यहाँ इतना ही अभीष्ट है कि साधारण जनता उस अबोध बालक के समान है, जो रोता-रोता दोपैसे का मिष्टान्न पाकर हँसने लग जाता है । और अपने अध्ययन सेवा, सत्कर्म आदि कार्यों में जुट जाता है, किसनो अच्छी बात है। बस, इतना - सा अभिप्राय है, प्रस्तुत लेख का । कोई इतना - सा भी समझ ले, तो वह मुझे इस लेख की सफलता के लिए पर्याप्त है। जुलाई १९८८
स्वर्ग-लोक के ये यात्री :
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