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________________ में पुन: दुहराई गई है - "माणुस्सं विगहलद्धं सुइधम्मस्स दुल्लहा।" उत्तराध्ययन सूत्र के दशवें अध्ययन में भी पुनः श्रुत की दुर्लभता का वर्णन है - "उत्तमधम्म सुई हु दुल्लहा।" __ स्थानांग सूत्र में श्रमण की पर्युपासना के दस महान् फल बताए गए हैं। उनमें पहला फल श्रवण है, तदनन्तर ज्ञान, विज्ञान, संयम, तप आदि का उल्लेख है -- "सवणे गाणे य विन्नाणे पच्चक्खाणे य संजमे । अणण्हते तवे चेव वोदाणे अकिरिय निव्वाणे ।।" ३, ४१८. भगवती आराधनाकार आचार्य शिवार्य भगवती आराधना में स्वाध्याय की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं -- "सर्वज्ञ भगवन्तों के द्वारा उपदिष्ट आभ्यन्तर और बाह्य भेद के रूप में-- जो बारह प्रकार के तप हैं, उनमें स्वाध्याय के समान श्रेष्ठ तप न कोई दूसरा है और न होगा" "बारसविहम्मि य तवे समंतरबाहिरे कुसलदिढे । ण वि अत्थि ण वि य होहिदि सज्झायसमं तवो कम्मं ।।" १०६. जैन - परम्परा ही नहीं, वैदिक परम्परा में भी वेदों को श्रुति कहा है, जिसका अर्थ है - सद्गुरु ऋषियों से सुनना, तदनन्तर कण्ठस्थ करना। वेदान्त में श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन के रूप में जो साधना का क्रम है, उसमें भी सर्व प्रथम श्रवण का उल्लेख है । बृहदारण्यक में कहा है -- "आत्मा व अरे द्रष्टव्य, श्रोतव्यो, मन्तव्यो, निदिध्यासितव्यः ।" - २,४,५. शास्त्र लेखन का युग जब प्रारम्भ हुआ, तब शास्त्र पुस्तकारूढ़ हो गए और श्रवण की जगह पठन की परम्परा चली । और, इस पठन परम्परा में भी गुरु से पठन का ही महत्त्व है, स्वयं पठन का नहीं | गुरु के श्रीमुख से पढ़ने वाला शास्त्रज्ञ शास्त्र के रहस्य को भली भाँति जान सकता है । स्वयं अपने आप पढ़ने वाला शास्त्र के गूढ़ मर्मस्थलों को कैसे अवगत कर सकता है? यही हेतु है, स्वाध्याय के पाँच अंगों में प्रथम के दो अंग सद्गुरु से ही सम्बन्धित हैं-- वाचना और पृच्छना । ज्ञानी सद्गुरु से ही शास्त्र की वाचना लेनी चाहिए और जहाँ कहीं (३५०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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