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________________ " अन्नण सम्मोह-तमोहरस्स, नमो नमो नाण-दिवायरस्स । " आचार्य उमास्वाति ने विश्व के सर्वोत्कृष्ट पुण्य-पद तीर्थकरत्व की उपलब्धि के हेतुओं में भी ज्ञानोपयोग को महत्ता दी है " अभीक्षणं ज्ञानोपयोग संवेगौ । " अब प्रश्न है, इस महान ज्ञान-गुण की उपलब्धि किसके द्वारा होती है? वैसे तो निश्चय दृष्टि में ज्ञान-गुण आत्मा का ही निज गुण है किन्तु, उसके सम्यक्-विकास में निमित्त तो अपेक्षित ही है । और, वह निमित्त है सद्-गुरु । इसलिए श्रुतज्ञान जनता के परिबोध की दृष्टि से महत्तम ज्ञान है । साधक सद्-गुरु की वाणी को सुनकर ही जीव आदि तत्त्वों का सम्यक्-परिज्ञान करता है। जड़-चेतन के भेद-विज्ञान की दृष्टि भी सद्-गुरु के उपदेश श्रवण से ही उपलब्ध होती है । इसी भावना को दशवैकालिक सूत्र के चतुर्थ अध्ययन में स्पष्टतया अभिव्यक्त किया है - " साधक सुनकर ही कल्याण - मार्ग का अर्थात ज्ञान, दर्शन, चारित्र का बोध करता है और सुनकर ही पाप-असंयम का परिज्ञान करता है । दोनों में से चिन्तन पूर्वक जो श्रेय है, उसका आचरण करता है, और अश्रेय का परिहार करता है।" सूत्र पाठ है - " सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । उभयपि जाणई सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ।। "११ सद्गुरु से श्रुतज्ञान की उपलब्धि की परम्परा प्राचीन ही नहीं, प्राचीनतम है । आगमों के रचना-काल से लेकर भगवान महावीर के निर्वाण के दशवें शतक तक अर्थात् ६८० वर्ष तक जैनागम रूप श्रुतज्ञान कण्ठस्थ ही रहा है। और, यह कण्ठस्थ अध्ययन आचार्य अर्थात् गुरु के श्रीमुख से सुनकर ही होता था। इसीलिए गुरु के उपदेश श्रवण को ज्ञान प्राप्ति का प्रधान अंग माना गया है । उत्तराध्ययन सूत्र (३-१) में चार दुर्लभ परमांगों का जो महत्त्वपूर्ण वर्णन है, उनमें मनुष्यत्व के बाद द्वितीय परमांग श्रुति अर्थात् सद्गुरु का उपदेश श्रवण ही है - " माणुसत्तं सुइ सद्धा संजमंमिय वीरियं।” इससे स्पष्ट है, श्रुत के बाद ही श्रद्धा और आचरण का नम्बर आता है । यही बात उक्त सूत्र के तृतीय अध्ययन (३४९) Jain Education International Fof Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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