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" णाणोवओगरहिदेण ण सक्को चित्तणिग्गहो काउं । णाणं अंकुसभूदं मत्तस्स हु चिहत्थिस्स ।।" ७५६
जैसे सुन्दर रीति से साधी गई विद्या पिशाच को पुरुष के वश में कर देती है, वैसे ही सम्यक् रूप से आराधित ज्ञान अयोग्य कर्मकारी चित्त रूपी पिशाच को वश में करता है ।
“ विज्जा जहा पिसायं सुठु पउत्ता करेदि पुरिसवसं । णाणं हिदयपिसायं सुठु पउत्ता करेदि पुरिसवसं ।। " ७६०
जिसके निर्मल हृदय में ज्ञान का दीप प्रज्वलित है, उसको जिनोपदिष्ट मोक्ष-मार्ग के विनाश का कुछ भी भय नहीं है ।
"णाणपदीओ पज्जलइ जस्स हियए विसुद्ध लेसस्स | जिणदिट्ठमोक्खमग्गे पणासणभयं ण तस्सत्यि ।। " ७६६
ज्ञान का प्रकाश ही यथार्थ प्रकाश है । क्योंकि ज्ञान रूपी प्रकाश में स्थिर साधक का कभी पतन नहीं होता । सूर्य तो अल्प क्षेत्र को ही प्रकाशित करता है, किन्तु ज्ञान तो समग्र विश्व को अर्थात् लोकालोक को प्रकाशित करता
" णाणुज्जोवो जोवो णाणुज्जोवस्स णत्यि पडिघादो ।। दीवेइ खेत्तमप्पं सूरो णाणं जगमसेसं ॥" ७६७
जो व्यक्ति ज्ञान के प्रकाश के विना चारित्र एवं तप रूप मोक्ष-मार्ग को प्राप्त करना चाहता है, वह अंधा है, अन्धकार में अति कठिन दुर्ग पर आरोहण करना चाहता है
“णाणुज्जोएण विणा जो इच्छदि मोक्खमग्गमुवगंत्तुं । गंत्तुं कडिल्लमिच्छदि अंघलओ अंधयारम्मि ||" ७७०
श्री नवपद स्तुतिकार आचार्य ज्ञान को अज्ञानतप के हरण करनेवाले सूर्य के रूप में दो वार नमो-नमो कहते हुए नमस्कार करते हैं -
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