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क्या परिबोध होगा? दशवैकालिक सूत्र के चूर्णिकार आचार्य अगस्त्यसिंह गणी ने अज्ञानी को अन्ध की उपमा दी है । उदाहरण दिया है - जैसे नगर में आग लग जाए, सब ओर हाहाकार मच जाए, तो आँखों वाले तो अग्निरहित निरापद मार्ग से नगर से बाहर निकलकर अपनी रक्षा कर सकते हैं, किन्तु अन्धा क्या कर सकता है ? दिखता नहीं है,अत: बचाव के लिए जलती आग की ओर ही दौड़ पड़ता है, वहाँ भस्म होने के सिवा और होगा क्या? यही स्थिति अज्ञानी अन्ध की है। वह भी संसार के विषय विकारों की आग में श्रेय तो क्या पाएगा, उल्टा अश्रेय में जा पड़ता है । बोल हैं आचार्यदेव के - “जहा अंधो महानगर दाहे पलित्तमेव विसमं वा पविसति, एवं छेय-पावगमजाणं तो संसारमेवाणु पडति।” उक्त प्रसंग पर सुप्रसिद्ध टीकाकार आचार्य हरिभद्र भी यही कहते हैं - दकं निपुणं हितं कालोचितं, पापकं ना अतो विपरीतमिति, ततश्च तत्करणं भावतोऽकरणमेव, समग्रनिमित्ता भावात् अन्धप्रदीप्तपलायन घुणाक्षर करणवत् ।' दशवे. टीका ४,१०
अतः शत - प्रतिशत स्पष्ट है कि साधक के लिए सर्वप्रथम ज्ञान की अपेक्षा है । गीता में श्रीकृष्ण का उद्घोष है - 'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।' गीता, ४,३८ अर्थात् ज्ञान के समान अन्य कुछ भी पवित्र नहीं है, आत्मा को पावन करने वाला नहीं है । जैसे प्रज्वलित अग्नि काष्ठ समूह को भस्मसात कर देती है, वैसे ही ज्ञान रूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है। गीता का श्लोक है -
यथैधांसि समिद्धोऽग्निभस्मसात्कुरुतेऽर्जुन | ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा । ४.३७
श्रमण भगवान महावीर का अन्तिम देशना सूत्र के रूप में मान्य उत्तराध्ययन सूत्र में मोक्ष - मार्ग का प्रथम रूप ज्ञान ही बताया है - 'नाणं च दसणंचेव-' २८-२। उक्त सूत्र में ही कहा गया है कि चेतन-अचेतन सभी तत्त्वों का और उनके शुद्धाशुद्ध स्वरूपों का यथार्थ परिबोध ज्ञान के द्वारा ही होता है - "नाणेण जाणइ भावे ।" २८,३५
जैन-परम्परा के महनीय यापनीय शाखा के आचार्य शिवार्य ज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुए अपनी सुप्रसिद्ध रचना 'भगवती आराधना' में लिखते हैं-"ज्ञान के बिना मनुष्य अपने चित्त का निग्रह नहीं कर सकता । ज्ञान, वह अंकुश है, जो मत्त हुए चित्त रूप हस्ती को नियंत्रित करता है "
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