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ज्ञानमेकं परम ज्योति
संसार में जो भी दुःख हैं, पीडाएँ हैं, यातनाएँ हैं, सबका मूल कारण अज्ञान है । अज्ञान में से ही राग, द्वेष, घृणा, वैर, कलह, हिंसा, उत्पीडन आदि विकारों का जन्म होता है । जहाँ ये विकारों के भूत-प्रेत हैं, वहाँ सुख, प्रमोद एवं आनन्द कहाँ ? अज्ञानमूद आत्मा, जिन सांसारिक सुखोपभोगों को सुख समझता है, वे भी दु:ख ही हैं | सुख तो केवल छलावा मात्र है । शास्त्रकारों ने इन सुखों को किंपाक फल की उपमा दी है। वह देखने में बहुत सुन्दर, सूंघने में बहुत सुगन्धित तथा खाने में बहुत मधुर, किन्तु अन्तिम परिणाम में विष होने से मृत्यु का हेतु होता है | संसार के सुख भी 'बहिरेव मनोहरा:' हैं, किंतु परिणाम में तो अन्ततः दुखावह हैं । अत: अनुभवी ऋषियों ने कहा है - 'दु:खमेव सर्व विवेकिन:' योग दर्शन २,१५ अर्थात् विवेकी साधक की दृष्टि में संसार का सब सुख भी दु:ख ही है | जो अध्रुव है, क्षणिक है, वह शाश्वत आत्मानन्दरूप सुख की तुलना में दुःख नहीं, तो क्या है? और यह दुःख अज्ञानजन्य है । इसीलिए अष्टविध कर्मों की गणना में सर्वप्रथम ज्ञानावरण का निर्देश किया गया है | मोह भी अज्ञानमूलक ही है । 'अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः' गीता ५, १५। अज्ञान से ज्ञान आच्छादित है, इसी कारण संसारी प्राणी मोह - मूर्च्छित हैं।
अत: साधना के पथ पर सर्वप्रथम अज्ञान का निराकरण आवश्यक है | दशवैकालिक सूत्र में कहा है - 'पढमं नाणं तओ दया। दशवै. ४,१० प्रथम ज्ञान है, तदनन्तर दया है अर्थात् चारित्र है, संयम है । ठीक भी है, जब कर्तव्य का कुछ अता-पता ही नहीं है, तो उस कर्तव्य का कोई यथोचित पालन क्या खाक करेगा? गतव्य दिशा का अता-पता ही न हो, तो फिर पथिक जाएगा कहाँ ? यह गमन नहीं, भटकन है । अत: दशवैकालिक सूत्रकार कहते हैं - "अन्नाणी किं काही, किंवा नाही से - पावर्ग।" ४,१०.
अज्ञानी क्या करेगा? वह कैसे जान सकेगा कि क्या श्रेय है, और क्या अश्रेय है । अर्थात् कालोचित हित और हित के विपरीत पापरूप अहित का उसे
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