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शंका हो या परिबोध न हो, वहाँ सद्गुरु से पूछना चाहिए । अतएव लेखन काल के बाद भी सद्गुरु का महत्त्व ज्यों - का-त्यों महत्ता के शिखर पर
सद्गुरु का गीतार्थ अर्थात् सम्यक्-ज्ञानी होना परमावश्यक है । गुरु और वह अज्ञानी हो, इसका कुछ भी अर्थ नहीं है । ज्ञानहीन गुरु का तो तत्काल परित्याग कर देना चाहिए-- "विद्याहीनं गुरुं त्यज्येत"-- उल्लेख काफी पुरातन है।
___ आचार्य शिवार्य भगवती आराधना में कहते हैं, जो साधु अगीतार्थ है, सूत्र के मर्मार्थ को नहीं जानने वाला है, वह साधक के ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप रूप चतुरंग अर्थात् मोक्ष-मार्ग को नष्ट कर देता है । यदि एक वार यह चतुरंग नष्ट हो गया, तो पुन: इसका प्राप्त होना सुलभ नहीं है --
"णासेज्ज अगीदत्थो चउरंगं तस्स लोगसारंगं । णट्ठम्मि य चउरंगे ण उ सुलहं चउरंगं ।।" ४३१.
भारतीय इतिहास के मध्य काल से धर्मों में जो भेद-प्रभेद बढ़ते गए हैं और उनके कारण परस्पर विग्रह, कलह, द्वन्द्व उठते रहे हैं, उन सब के मूल में प्रायः अहंकार ग्रस्त अज्ञानी गुरु ही हैं । आज भी राष्ट्र धर्म के नाम पर जो हिंसा, अत्याचार और आतंक वाद के रूप में यातना भोग रहा है, वह स्पष्ट ही है अज्ञानी गुरुओं का दुष्प्रयत्न। अन्धे अन्धों का पथ-प्रदर्शन करेंगे, तो विनाश के सिवा और क्या परिणाम आएगा? अत: अपेक्षा है, पक्षपात-मुक्त निर्भय, निर्द्वन्द्व, एकमात्र सत्य के उपासक सम्यक्ज्ञानी गुरुदेवों की । उपनिषदों का "आचार्य-देवोभव" का जो शिष्य के प्रति महान उपदेश है, वह सम्यक्-ज्ञानी देवतात्मा गुरुजनों को लक्ष्य में रख कर ही कहा गया है ।
इन्हीं गुरुदेवों को मैं 'शत-शत सद्गुरवे नम:' करता हूँ । रात के इस सघन तम में, एक है गुरु दिव्य तारा | जो हमें सत्पथ दिखाता, बेसहारों का सहारा ।।
नवम्बर १९८५
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