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अनन्त ज्योतिर्मय चैतन्य दीप :
श्रमण भगवान महावीर
महतो महीयान श्रमण भगवान महावीर, वह अनन्त ज्योति पुज चैतन्य दीप है, जिसके लिए शक्रस्तव सूत्र में उन्हें लोक-दीप, अतएव लोक-प्रद्योतकर महातिमहान् सम्बोधनों से संबोधित किया है ।
धरती के दीपक कितने ही बड़े दीप क्यों न हों, फिर भी अपने चारों ओर अंधकार से घिरे हुए रहते हैं । आकाश का दिनकर दीप सूर्य भी लोक - दृष्टि में दो रातों के बीच का दीपक है । अर्थात् उसके आगे-पीछे भी अँधेरी रातें हैं । किन्तु, श्रमण भगवान महावीर तो वह दीप है, जो किसी भी ओर से अंधकार से घिरा हुआ नहीं है । उसके आस-पास कहीं भी, किसी भी रूप में, अंधकार की प्रतीक कोई निशा नहीं है ।
यह दीप प्रदीप क्यों है ? 'प्र' अर्थात सर्वोत्कृष्ट रूप से प्रदीप्त होने वाला दीप ।
वह लोक प्रद्योतकर क्यों है ? 'प्र' अर्थात् सर्वोत्कृष्ट रूप से समग्र विश्व को अर्थात् विश्व के समग्र सत्य को द्योतित करने वाला दीप ही नहीं, प्रद्योतित करने वाला प्रदीप है ।
ऐसा क्यों है ? इसलिए है, कि उसे प्रकाश के लिए बाहर के किसी निमित्त हेतु एवं कारण की अपेक्षा नहीं है । वह स्वयं में स्वयं की अनन्त शक्ति से अनन्त - अनन्त काल प्रकाशमान है । अर्थात् वह सदा काल प्रकाश है, कभी अप्रकाश नहीं होता । वह कभी बुझा नहीं, बुझेगा भी नहीं । सुख-दुःख की कितनी बड़ी भयंकर आंधियाँ आई, तूफान आए । अन्य हजारों दीप बुझ गए, किन्तु वह
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