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________________ नहीं बुझा। अपने प्रकाश के लिए यदि बाहर की अपेक्षा होती, तो वह इन बाहर के भयंकर चक्रवातों, तूफानों से तो क्या, साधारणसे हवा के झोंके से भी बुझ जाता । यह वह दीपक है, जो निधूम है । धरती के दीपक जलते हैं, प्रकाश देते हैं एक सीमा में, किन्तु साथ ही धुआँ भी छोड़ते हैं, इधर-उधर कालिमा फैलाते हैं । जहाँ स्थित होते हैं, वहाँ आसपास की चीजों को अपने धुएँ की कालिख लगाकर गन्दा कर देते हैं । किन्तु भगवान महावीर तो वह अद्भुत दीप है, जो स्वयं तो क्या धुआँ छोड़ेंगे, उन्होंने तो दूसरे दीपकों के धुएँ को भी परिसमाप्त किया | यह धुआँ क्या है ? अन्तर मन का विकार ही तो धुआँ है । क्रोध, मान, दम्भ, लोभ, आसक्ति आदि, संक्षेप में कहें तो राग - द्वेष ही अन्तर्मन का धुआँ है । जो स्वयं व्यक्ति को भी और आस-पास के परिवार तथा समाज आदि को भी धूमिल करता है, गंदा करता है । महावीर इस विकार के धुएँ से सर्वथा मुक्त रहे हैं । श्रमण भगवान महावीर की माता राजरानी त्रिशला ने उनके अवतरण के समय में चौदह स्वप्न देखे थे । यह वर्णन हमारे अतीत के साहित्य में आज भी उपलब्ध है । इन चौदह स्वप्नों के उपसंहार रूप में चौदहवाँ स्वप्न निर्धूम अग्नि शिखा का लिखा है । अर्थात् वह अग्नि ज्वाला जो धूम से रहित है । अत: विशुद्ध अग्नि देव है । इस स्वप्न ने सूचित किया था कि अवतरित होने वाला महान् चैतन्य दीप धूम रहित होगा, अर्थात् विकारों से मुक्त । यद्यपि कृष्ण ने कहा था - "सर्वारम्भा हि दोषेण, धूमेनाग्निरिवावृताः ।" अर्थात् सभी कर्म दोष से उसी प्रकार आच्छादित रहते हैं, जिस प्रकार धूम से अग्नि आच्छादित रहती है । महाश्रमण महावीर इस उक्ति के अपवाद हैं । उनके कर्म अर्थात् व्यवहार राग-द्वेष रूप धूम से अनावृत्त रहे हैं । भयंकर से-भयंकर प्रतिकूल उपसर्गों में भी वे क्षोभ मुक्त रहे हैं और बड़े से बड़े मनोमुग्धकर अनुकूल प्रसंगों में भी वे मोह मुक्त रहे हैं । मोह और क्षोभ से मुक्त ही उनका चारित्र था । जिस शान्त एवं स्वच्छ मन से वे पर्वत की कठोर शिला पर बैठे हैं, उसी प्रकार इन्द्रासन से भी बहुमूल्य मनोरम एवं रत्न जटित स्वर्ण सिंहासन पर भी सर्वथा स्वच्छ मोह-मुक्त भाव से विराजित रहे हैं । निंदा और स्तुति की गर्म और ठण्डी हवाओं से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं रहा है । अत: स्पष्ट है, वे विश्व में एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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