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और समझदार आदमी भी अपनी जाति एवं संप्रदाय का अभिमान बचाने के लिए हिस्सा लेने लगते हैं, भले ही वे विवश होकर ही हिस्सा लेते हों ।
हम देखते हैं कि खंडित सामाजिकता का, सांप्रदायिकता का, जात-पांत, ऊँच-नीच आदि का रोग ऊपर से नीचे तक फैल गया है । जिस निम्न जाति के व्यक्तियों को ऊँच जाति के लोग नफरत की निगाह से देखते हैं, वे भी छूत-अछूत के भेद-भाव से भरे हुए हैं । बड़े-छोटी जातियों से घृणा करते हैं, परन्तु वे छोटी जातियों के लोग भी अपने से छोटी समझी जाने वाली जातियों से उतनी ही घृणा करते हैं । ऐसी स्थिति में इस रोग को दूर करने के लिए बहुत बड़ी क्रान्ति की अपेक्षा है | गाँधीजी को भी इसी प्रश्न को सुलझाने के लिए अपना बलिदान देना पड़ा | गोडसे के साथ उनका कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं था । परन्तु, बापू ने मुसलमानों को भी हिन्दुओं जितना ही प्यार किया, इसलिए उन्हें मार डाला गया । इस प्रकार के बलिदान हमारे अनेक पूर्वजों को भी देने पड़े हैं।
जातिगत, वर्णगत, सम्प्रदायगत और समूहगत, जो हिंसा फूटती है, वह मनुष्य को मनुष्य के रूप में न देखकर घृणा और द्वेष की संकुचित दृष्टि से देखती है | कभी-कभी मनुष्य अपनी इन संकुचित वृत्तियों को दैनिक जीवन के व्यवहार में भी प्रगट कर देता है और उस कारण से वह अपनी व्यवस्थित नीतिमय परम्पराओं को तोड़ डालता है। एक बालक ठोकर खाकर रास्ते में गिर पडता है, तो उस समय रूढ़िग्रस्त, जातिवादी लोग यह सोचने लगते हैं कि अगर यह बच्चा किसी हरिजन जाति का या नीची जाति का हो तो इसे नहीं उठाना चाहिए | यह कितनी निर्दयता की भावना है ? जिसके हृदय में थोडी-सी भी करुणा होगी, दया होगी, वह बिना किसी तरह का विचार किए, उस बच्चे को तुरन्त अपनी गोद में उठा लेगा, क्योंकि यह तो मानव की मानवता है, उसका परम कर्तव्य है ।
उत्तराध्ययन सूत्र के १२ वें अध्ययन में हरिकेशीमुनि की एक प्रेरणाप्रद कहानी है | यह कहानी जैन-साहित्य की अमूल्य निधि है, और इस कहानी को पढ़ने से ऐसा लगता है कि हमारे पूर्वजों ने वे गलतियाँ नहीं की, जो गलतियाँ आज हम कर रहे हैं । हरिकेशिमुनि श्रेष्ठ गुणों के धारक, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाले और एक महान आदर्श भिक्षु थे। उनके गुणों का उल्लेख करते हुए शास्त्रकार इस बात का उल्लेख करते हैं कि हरिकेशी मुनि चांडाल कुल में उत्पन्न हुए थे । शास्त्र में सबसे पहले इसी बात का उल्लेख किया गया है
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