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________________ 'सोवाग कुल संभूवो, गुणुत्तरधरो मुणी । हरिएस बलो नाम, आसी भिक्खु जिइंदियो ।' यह उल्लेख हमें शास्त्रकारों के हृदय तक ले जाता है । इस कहानी को समझने के लिए हमें उस युग की परिस्थिति को भी समझना चाहिए और इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि जिस जमाने में जातिवाद अत्यन्त भयंकर रूप में फैल चुका था, उस समय भी जैन शास्त्रकारों ने चांडाल कुलोत्पन्न मुनि का गुणानुवाद किया है । जीवन यात्रा में कभी-कभी बड़ी अटपटी घटनाएँ सामने आती हैं । सावधान रहने पर भी मनुष्य ठोकर खा ही जाता है । किन्तु, सच्चा बहादुर वही है जो गिर कर भी उठ खड़ा होता है । हरिकेशी मुनि उन्हीं वीरों में से एक थे । उन्होंने अपने जीवन को एवं आत्मा को संभाला और वे अत्यन्त महान व्यक्तित्व वाले मुनि बन गए । जब वे गृहस्थ थे, तब चारों ओर से उन्हें अनादर मिला किन्तु, जब उन्होंने अनादर का विषाक्त घूंट पीकर अपने मन को स्थिर किया, तो श्रेष्ठ गुणों को धारण करने वाले जितेन्द्रिय भिक्षु बन गए । भगवान महावीर स्वयं कहते हैं कि जाति की कोई विशेषता नहीं है । तपस्या की ही विशेषता है। जीवन की पवित्रता एवं साधना ही मानव को विशिष्ट बनाती है । जाति तो केवल अहंकार जन्य विकार है । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हरिकेशी मुनि हैं । चांडाल का लड़का भी कितना ऊँचा उठ सकता है, यह हरिकेशी मुनि ने अपनी उत्कृष्ट साधना से साबित कर दिया । उनका आध्यात्मिक तेज और उनका विमल यश चारों ओर व्याप्त हुआ । जैन शास्त्रों की इतनी सचोट आवाज को सुनकर भी यदि हमारे रूढ़िचुस्त समाज के लोग अपनी आँख नहीं खोलते हैं, तो उसके लिए कोई उपाय नहीं है । आखिर कर्ण भी तो सूतपुत्र थे । किन्तु, अपने पुरुषार्थ और प्रयत्न के द्वारा उन्होंने अपने जीवन का जो नव-निर्माण किया, उससे वे अनेकानेक क्षत्रियों से भी अधिक बलवान साबित हुए । उन्होंने कहा - " किस कुल में मेरा जन्म हुआ, यह मेरे हाथ में नहीं था, प्रकृति के हाथ में था । किन्तु पुरुषार्थ तो मेरे हाथ में है । फिर मैं क्यों न पुरुषार्थ करूँ ? मैं जन्म से न सही, किन्तु अपने कर्म से क्षत्रिय बन गया हूँ ।" इसी तरह वाल्मीकि भी पहले एक डाकू ही तो थे । किन्तु जब उनके हृदय में परिवर्तन आया और जब उनके अन्तर्मन में करुणा का झरना (३४०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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