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________________ जीवन की रक्षा का भार परेशान नहीं करता है, वह अपने प्राण देकर भी दूसरों की रक्षा करने के लिए तत्पर रहता है । इसलिए वास्तव में वह वीर है और वही अहिंसक भी । कभी-कभी ऐसा भ्रम होता है कि हम कायरता को ही वीरता समझ लेते हैं । इतना ही नहीं, बल्कि वह भ्रम मन को इस तरह दबोच लेता है कि हम हिंसा को भी अहिंसा का नाम दे देते हैं । यही कारण है कि दूसरों की हत्या करने वाले या दूसरों की हिंसा करने वाले, वीर कहलाने लगते हैं और धर्म के नाम पर, जाति-पांति के नाम पर, सम्प्रदाय के नाम पर होने वाली हिंसा को भी अहिंसा समझ लिया जाता है । इस प्रकार अहिंसा और हिंसा सम्बन्धी उलझनें अनेक बार पैदा होती हैं । किंतु, यदि मानव अपने विवेक से काम लेता है और इन उलझनों को सुलझा देता है । जहाँ उसे अपनी बुद्धि और अपना विवेक सहारा नहीं देता, वहाँ वह इतिहास का, धर्म-ग्रंथों का अथवा प्राचीन शास्त्रों का सहारा ले लेता है | शास्त्र, चिन्तन में सहायक हो सकते हैं, किन्तु आखिर तो मानव को अपने विवेक का निर्णय ही स्वीकार करना पड़ता है । क्योंकि शास्त्र का भी एक कोई निश्चित फलितार्थ कहाँ है? प्राचीन काल से ही पंडित लोग शास्त्रों का अनेक प्रकार से विश्लेषण करते रहे हैं और मानव के मन-मस्तिष्क को अनेक विचित्र परिभाषाओं में उलझा देते हैं । आज हिंसा का जो भयंकर रूप बना है, उतना उग्र रूप पहले नहीं था। जो हिंसा सामाजिक और सामुदायिक क्षेत्र में ज्यादा भयंकर और व्यापक हो रही है और उस सामाजिक और सामुदायिक हिंसा को बहुत से लोग हिंसा ही नहीं समझते । एक अखण्ड मानव - जाति अनेक जातियों एवं उपजातियों में बंट गई है । उसके असंख्य टुकड़े हुए हैं । उन टुकड़ों को कोई गिनना चाहे, तो शायद अच्छी तरह से गिन भी नहीं सकेगा | सम्प्रदाय - ६ | जाति एवं वर्गों के नाम पर किस तरह ऊँच - नीच की चौड़ी खाई खोदी हुई है । ये खाइयाँ उसी तरह मानव जीवन को कष्ट पहुँचाती हैं, जिस तरह पैर में घुसा हुआ और न दिखाई देने वाला काँटा सारे शरीर को पीड़ित करता रहता है । ये भेद प्रभेद कभी - कभी धर्म और इज्जत का प्रश्न सामने रखकर भीतर-ही जल उठते हैं और फिर विस्फोट के रूप में बाहर भी फूट पड़ते हैं | इस विस्फोट में विद्वेष की आग सुलग उठती है । इस आग में बड़े-बड़े विचारक (३३८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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