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अहिंसा के पक्षधरों का परीक्षा - काल
आज मानवसमाज विचित्र स्थिति में से गुजर रहा है । मानव-जाति के जनमंगल रूप मन, वाणी और कर्म में एक तरह का ठहराव सा आ गया है और इधर-उधर कुछ गति है भी तो वह विपरीत दिशा में है । वह अमंगल अभद्रता की कँटीली, जहरीली झाड़ियों की ओर अग्रसर है । यह गति निर्माण की नहीं, ध्वंस की है । मैं देखता हूँ, आये दिन जिस किसी भी व्यक्ति के मुख से, जो सुना जाता है, दैनिक समाचार पत्रों में जो पढ़ा जाता है, अनेक बार साक्षात् आँखों से भी जो देखा जाता है, वह अधिकतर इतना क्रूर एवं घृणित होता है कि मानवता का लज्जा से मस्तक अधोमुख हो जाता है । शंका होती है कि यह कर्म, कर्म क्या, अपकर्म, सचमुच में मानव ने किया है या किसी नर देहधारी पिशाच ने- राक्षस ने किया है । मानव के हाथों से तो ऐसा हो ही नहीं सकता । मानव के तन में, तन में क्या, मन में जो क्रूर हत्यारा राक्षस छुपा बैठा है, वही यह सब कुकर्म कर रहा है, करवा रहा है और करने के लिए प्रोत्साहन एवं बढ़ावा दे रहा है ।
प्रश्न है, ऐसा क्यों है, क्यों हो रहा है ? उत्तर अनेक हो सकते हैं । एक कार्य के मूल में अनेक छोटे-बड़े कारण हो सकते हैं, परन्तु प्रश्न- पर - प्रश्न है, मुख्य हेतु का । मानव जीवन में सब ओर दावानल की तरह फैलते अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, दुराचार, आदि का मुख्य हेतु क्या है ? निर्दोष स्त्री-पुरुषों, युवकों, बच्चों और किनारे पर पहुँचे निःसहाय बूढों तक की इन हत्याओं के विषैले मूल में आखिर कौन है ? किस दुष्ट दुर्जन की कर्मण्यता है, और किस शिष्ट सज्जन की अकर्मण्यता है यह ?
कितना भयावह आतंकवाद व्याप्त है । या पढ़ा जाता है, तो रोम-रोम सिहर उठता है ।
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आज, जब भी कुछ सुना आज मानव नामधारी प्राणी
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