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________________ एवं पंथों की चली आ रही परम्पराओं-मान्यताओं को ही धर्म समझ लिया है । इसी कारण आज बहुत बड़ी गड़बड़ फैली हुई है । पंथ में धर्म रह सकता है, किन्तु धर्म में पंथ नहीं है । किसी भी परम्परा में धर्म हो सकता है, परन्तु वह परम्परा, धर्म पर सवार नहीं हो सकती । यही कारण है कि वर्तमान युग तक जैन-परम्परा भं भी समय-समय पर देश - कालानुसार अनेक परिवर्तन हुए हैं और हो भी रहे हैं । धर्म शाश्वत सत्य है, वह त्रि-काल अबाधित है, उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता । लेकिन परम्पराओं में, मान्यताओं में, क्रिया-काण्डों में परिवर्तन होते आये हैं और होते रहेंगे । परम्पराएँ तीर्थंकरों के युग में परिवर्तित हुई हैं और उत्तरवर्ती आचार्यों के युग में भी बदलती रही हैं । जिस परम्परा एवं क्रिया द्वारा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह भाव की वृद्धि हो रही हो, राग-द्वेष एवं कषायभाव घट रहा हो, मैत्री भाव बढ़ रहा हो, वासना एवं अन्याय अत्याचार कम होता हो, वह परम्परा धर्म है। और जिससे अहिंसा, सत्यादि की हानि होती हो, अन्याय-अत्याचार बढ़ता हो, राग-द्वेष कषायभाव आदि में वृद्धि होती हो, वह अधर्म है । अस्तु, जिस क्रिया के द्वारा जीवन ऊँचा उठ रहा है, मैत्री एवं वीतराग-भाव की ओर बढ़ रहा है, वह धर्म है। और जिस क्रिया से जीवन गिरता है, जीवन में राग-द्वेष बढ़ता है, वह अधर्म है । इस प्रकार प्रज्ञा से समीक्षा करके, यथार्थ दृष्टि से विचार करके विवेक पूर्वक गति करना धर्म है। और, यह धर्म स्व के लिए भी कल्याणप्रद है, मंगलरूप है और आनन्द-प्रदाता है और जन-जन के लिए भी कल्याण रूप है । मई १९८४ Jain Education International (३०३) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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