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भी काट फेंकने के लिए तैयार हो गये हैं। परन्तु इससे न व्यक्ति का भला होगा और न समाज एवं मानव-जाति का ही कल्याण होगा ।
दूसरी ओर पुराने विचारों के वे लोग हैं, जो सिर्फ परम्परावादी ही नहीं, दुराग्रह-हठाग्रह से ग्रस्त हैं । उनका आग्रह है, जो नाखून निष्प्राण हो गया है, निरुपयोगी हो गया है, सड़ गल गया है, जब-तब खून बहाता है, शरीर को पीड़ा देता है, फिर भी उसे मत काटो । वह कभी हमारे शरीर का अंग रहा है। वह हमारा धर्म है, परम्परा है, उसे रहने दो । इस तरह दोनों ओर अति हो रही है ।
परन्तु जिस रूपमें यथास्थितिवादी सोच रहे हैं, उस रूप में जैन-धर्म एवं दर्शन ने नहीं सोचा | महाश्रमण महावीर एवं प्रबुद्ध मनीषी आचार्यों का कथन है-धर्म, सम्प्रदाय एवं पंथों से बहुत ऊपर है । यह किसी बाय क्रिया-काण्ड में आबद्ध नहीं है । जो परम्परा, मान्यता या क्रिया-काण्ड लम्बे काल से चला आ रहा है फिर भी जीवित है, प्राणवान् है, जीवन-विकास के लिए उपयोगी है, जिससे स्व और पर का तथा समाज एवं मानव-जाति का हित हो रहा है, उसे नहीं काटना है, उसे नष्ट नहीं करना है । उसे तो स्वीकार करना
___ हाँ, जो परम्पराएँ सड़ गई हैं, जीवन-विकास के पथ में बाधक हैं, जिनसे साधक एवं समाज का कोई हित नहीं हो रहा है, उन निष्प्राण रूढ़ियों को, निर्जीव नाखून की तरह काटकर फेंक देना ही श्रेयस्कर है । तात्पर्य यह है कि जिस परम्परामें से धर्म निकल गया है, जो समाज को दु:ख-पीड़ा दे रही है, उसे काट फेंकना परम आवश्यक है । जैन धर्म जीवन की गति-प्रगति को रोकता नहीं है और न गलत ढंग से किसी परम्परा को काट फेंकने की बात कहता है । भगवान् महावीर एवं प्रबुद्ध विचारकों का एक ही आदेश एकान्त आग्रह मत रखो। विवेक एवं विचार पूर्वक गति करो । अपनी अन्तर्-प्रज्ञा से, आत्म-चिन्तन से, विवेक बुद्धि से धर्म की, परम्पराओं की समीक्षा करनी चाहिए, उनका अन्वेषण करना चाहिए – “ पण्णा समिक्खए धम्मं "
सम्यक् रूप से विश्लेषण करने पर ही ज्ञात होगा-धर्म का स्वरूप क्या है ? और पंथ, सम्प्रदाय एवं परम्पराएँ क्या हैं ? कुछ लोगों ने पंथ, सम्प्रदाय
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