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हमारे नाखूनों के दो विभाग हैं-जीवित नाखून और मृत नाखून । नाखून का जो भाग उँगलियों से सटा हुआ है, जिसमें रक्त का संचार हो रहा है, वह जिंदा नाखून है । उस जीवित नाखून को काटेंगे, तो दर्द होगा। यदि अहंकारवश उसे काट देते हैं, तो खून की धारा बह निकलेगी, वह आपको पीड़ा देगा और आपके शरीर का एक महत्त्वपूर्ण अंग का एक भाग कटकर अलग हो जायेगा।
नाखून का निर्जीव भाग, जो उँगलियों से आगे बढ़ गया है, उसे काट देंगे, तो कुछ भी पीड़ा नहीं होगी । क्योंकि उसमें रक्त का संचार नहीं हो रहा है | यदि उसे यह समझकर नहीं काटेंगे कि यह हमारे शरीर का अंग है, इसे काटें, तो कैसे काटें ? नहीं काटने पर वह आपके शरीर को कष्ट पहुँचायेगा | शरीर पर जहाँ कहीं लग जायेगा, वहाँ लहू-लुहान कर गा | उसमें मैल भर जायेगा और वह मैल भोजन के साथ पेट में जाकर भयंकर बीमारियों को जन्म देगा।
अभिप्राय यह है कि जो नाखून जीवित है कि प्राणवान है, उसे नहीं काटना चाहिए । वह उंगली की रक्षा करता है, उसे बलिष्ठ बनाता है । इस रूप में वह जीवन के लिए उपयोगी है, परन्तु नाखून का जो भाग निष्प्राण हो गया है, उसे काट देना ही हितकर है । जीवित नाखून को काटना पीड़ा को भोगना है, तो मृत नाखून को नहीं काटना कष्टों को भुगतना है । अत: म्रियमाण नाखून को काट फेंकने में ही कल्याण है ।
यही बात धर्म पंथ एवं परम्पराओं के सम्बन्ध में है । परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों के नाखून को लेकर बड़े संघर्ष हो रहे हैं । एक ओर यह आवाज उठ रही है - " पुराने जमाने से चली आ रही, ये परम्पराएँ, ये रीति-रिवाज, ये धार्मिक क्रिया-काण्ड हमारे काम के नहीं रहे, इन्हें जड़ से उखाड़ फेंकना चाहिए । इस धर्म ने जनता के सिर फुड़वाए हैं, परस्पर संघर्ष करवाए हैं, अत: धर्म को ही नष्ट कर दो । धर्म से कोई कल्याण होने वाला नहीं है ।"
मेरे विचार से ऐसे लोगों ने पंथों, सम्प्रदायों एवं रूढ़ परम्पराओं को ही धर्म समझ लिया है |. उन्होंने धर्म गुरुओं के पद पर प्रतिष्ठित कुछ व्यक्तियों के गलत जीवन का अध्ययन कर लिया है । इसलिए वे धर्म (जिन्दा नाखून) को
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