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________________ जावा, सुमात्रा की ओर जा रहा था कि दुर्भाग्य से उसका जहाज समुद्री तूफान के कारण पूर्वी समुद्र ( बंगाल की खाड़ी ) में ध्वस्त हो गया । महाजनक के सभी साथी जब डूबने की स्थिति में मृत्यु के डर से घबरा रहे थे, हाहाकार कर रहे थे, तब वह जहाज के कूप अर्थात् मस्तूल पर चढ़ गया और सारे शरीर पर तेल मलकर समुद्र में तैरने के लिए तैयार हो गया । इसी बीच अनेक साथी डूब गए थे । इधर-उधर उनकी लाशें समुद्र में तैर रही थीं, घायलों के खून से समुद्र का पानी लाल हो रहा था, मगरमच्छ आदि भीषण जलचर लाशों को निगल रहे थे । मृत्यु का सर्वनाशी भयावह ताण्डव था यह एक प्रकार से । परन्तु महाजनक काफी साहस के साथ सात दिनों तक दिन और रात समुद्र में ध्वस्त जहाज का कोई तख्ता थामे तैरता रहा । कथाकार कहता है कि बंग समुद्र की अधिष्ठात्री देवी मणिमेखला, उस समय सात दिन के अवकाश पर देवताओं के एक समारोह में शामिल होने कहीं गई हुई थी । सात दिन के बाद लौटी, तो अपने सागर में युवक महाजनक को इस प्रकार साहस के साथ तैरते देख वह विस्मय विमुग्ध हो गई । अपने दिव्य अलंकृत रूप में आकाश में स्थिर होकर देवी ने राजकुमार को आवाज दी- " यह कौन है रे, जो समुद्र के बीच, जहाँ तट का कुछ भी पता नहीं है, तैरने के नाम पर व्यर्थ ही हाथ-पैर मार रहा है । किस आशा में, किसके भरोसे, यह अर्थहीन उपक्रम किया जा रहा है ? 17 देवी, मैं जानता हूँ कि लोक में जब तक बन पड़े व्यक्ति को पुरुषार्थ एवं उद्यम करना ही चाहिए । इसी संकल्प से इस अथाह समुद्र के बीच, तीर न देखता हुआ भी, मैं उद्यम कर रहा महाजनक ने उत्तर दिया । 4 22 इस अगाध अथाह सागर में, जिसका तीर भी कहीं नहीं दीख रहा है, तेरा यह पुरुषार्थ निरर्थक है । स्पष्ट है, तू तट पर पहुँचे बिना ही बीच में ही कहीं मर जाएगा ।" -“ देवि, क्यों तू ऐसा कहती है ? पुरुषार्थ करता हुआ यदि मैं मर भी जाऊँगा तो कोई बात नहीं । कम से कम कायर कहे जाने की लोक-निन्दा से तो बचूँगा । जो व्यक्ति एक वीर पुरुष की तरह अन्तिम क्षण तक पुरुषकार-पराक्रम करता रहता है, वह पारिवारिक जनों एवं पूर्वज पितरों के ऋण से मुक्त हो जाता है, और उसे यह तो पछतावा नहीं होगा कि मैंने समय पर कोई प्रयत्न नहीं किया ।" Jain Education International (२९४) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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