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सुस्वादु भोजन अधिक खाया जाता है, वृन्दभोज आदि के रूप में अधिक बनाने के कारण बच भी रहता है और वह फिर जूठन के रूप में फेंका जाता है या पुण्यार्जन के लिए गरीब लोगों को खिलाकर दान का नाटक रचाया जाता है । एक युग था, जब बड़े कहे जाने वाले लोग थाली नहीं, थाल भर कर भोजन कर बैठते थे । अन्त में काफी जूठन छोड़ना उनकी एक शान थी । वह जूठन छोटे सेवकों को या भिखमंगों को बाँटी जाती थी । बदले में दाता के जयजयकार की ध्वनि गूँजा करती थी । किन्तु यह पद्धति भारतीय संस्कृति के सर्वथा विपरीत है । भारत का आदर्श है जनता की सेवा जनता को भगवान समझ कर करो । अतः उसे जो भी देना हो, सत्कार सम्मान के साथ शुद्ध वस्तु अर्पण करो । इस तरह की गंदी तथा सड़ी गली जूठन नहीं । प्रथम तो हमारे यहाँ अल्पाहार का आदर्श है, अतः अधिक भोजन लेकर जूठ छोड़ना पाप है। महाश्रमण महावीर की देशना है' मायन्ने असणपाणस्स' अर्थात् भोजन करने से पूर्व अपेक्षित भोजन की मात्रा ( परिमाण ) का ज्ञान कर लेना आवश्यक है । अपनी भूख को नाप लेना जरूरी है और इससे आगे यह भी भारत का आदर्श है कि भूख से कुछ-न-कुछ कम ही खाना चाहिए । पेट भरकर नहीं और अधिक तो बिल्कुल ही नहीं । फिर भले ही वह भोजन, साक्षात् अमृत भोजन ही क्यों न हो । भगवान महावीर के ज्ञान में भूख से कुछ कम खाना तप है, ऊनोदर तप ।
अल्प खाना ही अधिक खाना :
भोजन कितना ही सरस, स्वादु तथा पौष्टिक क्यों न हो, अति मात्रा में खाया गया हानिकारक ही होता है । पाचन के अभाव में भोजन का अधिकांश भाग शरीर को रोगादि देकर व्यर्थ ही मल के रूप में बाहर निकल जाता है । उसका ठीक तरह रस नहीं बन पाता । अल्प भोजन की पाचन क्रिया ठीक होती है, फलत: उसका रस भाग अधिक बनता है, जो शरीर को पूरा पोषण दे देता है । इसीलिए आचार्य सोमदेव ने कहा था- यो मितं भुंक्ते, स बहु भुंक्ते अर्थात् जो कम खाता है वह ज्यादा खाता है
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वर्तमान अन्न संकट के संदर्भ में :
भारत अन्नाभाव से पीड़ित है । अन्न संकट की समस्या आज सुरसा राक्षसी बन रही है । कहीं बाद है तो कहीं यह नहीं तो पुरातन पद्धति पर पले
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