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अत: वह समय पर अपने साथियों को ठीक तरह कुछ नहीं दे सकता । इस सन्दर्भ में प्रश्न- व्याकरण सूत्र का एक सूक्तिवचन है
“असंविभागी, असंगहरुई अप्पमाणभोई से तारिसएनाराहए वयमिणं"
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- जो असंविभागी है- प्राप्त सामग्री ठीक तरह वितरण नहीं करता, जो असंग्रहरुचि है- साथियों के हितार्थ समय पर उचित सामग्री का संग्रह एवं वितरण करने में रुचि नहीं रखता, जो अप्रमाणभोजी है- आवश्यकता से अधिक भोजन करने वाला पेटू है, वह अस्तेय अर्थात् अचौर्यव्रत की सम्यक् आराधना नहीं कर सकता ।
श्रीमद् भागवत में महर्षि नारद भी उपर्युक्त सिद्धान्त के पुरजोर समर्थक हैं । उनका कहना है कि जितने से पेट पूर्ति हो सकती है, मनुष्य को केवल उतना ही संग्रह करने का अधिकार है | जो इससे अधिक संग्रह करता है और उसका मर्यादाहीन उपयोग करता है, वह चोर है, दण्ड का पात्र है ।
"यावद् भ्रियेत जठरं, तावत्सत्वं हि देहिनाम् । अधिकं योऽभिमन्येत, स स्तेनो दण्डमर्हति ।।
भोजन का सम्बन्ध क्षुधा से :
भोजन का सम्बन्ध क्षुधा से है, जिह्वा से नहीं | फिर भी धर्म प्रधान भारत में भूख की अपेक्षा जीभ को अधिक महत्त्व मिल रहा है । सम्पन्न कहे जाने वाले घरों में नाना प्रकार के सुस्वादु भोजन बनते हैं, जिन में खाद्य सामग्री का इतना अधिक अपव्यय होता है कि कुछ पूछो ही मत । बड़े शहरों के फाइव् स्टार जैसे शानदार होटल भी इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । आज की इस भोजन प्रक्रिया में सात्त्विकता का तो कुछ अंश ही नहीं रहा है । भोजन से सम्बन्धित हित, मित एवं पथ्य की त्रिसूत्री वर्तमान में बस पुरातन पुस्तकों में बंद होकर रह गई है । विवाह शादियों में, धार्मिक उत्सवों में, मेहमानों के सामूहिक स्वागत सत्कारों में इतनी अधिक मात्रा में सुस्वादु भोज्य सामग्री बनती है, जो साधारण जनता के लिए साधारण भोजन के रूप में महीनों काम आ सकती है ।
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