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________________ और अत्याहार से लौकिक तथा लोकोत्तर दोनों में से कोई भी इष्ट-साधना सार्थक नहीं हो सकती । अतः आदर्शवाद के साथ यथार्थवाद का उचित समन्वय करते हुए महाश्रमण महावीर ने अल्पाहार का उपदेश किया है । इस सम्बन्ध में उनके कुछ उपदेश सूत्र स्मरणीय हैं "अप्पाहारस्स दंतस्स, देवा दंसेति ताइणो । 11 दशाश्रुतस्कन्ध ५/४ - जो साधक अल्पाहारी है, इन्द्रिय और मन की अनर्गल वृत्तियों का विजेता है, सब प्राणियों के प्रति हित की भावना रखता है, उसके दर्शन के लिए देव भी आतुर रहते हैं । "" - 46 - - ऐसा हित-मित एवं शुद्ध भोजन करना चाहिए, जो जीवन यात्रा और संयम यात्रा के लिए उपयोगी हो । - तहा भोतव्वं जहा से जाया माता य भवति ।" प्रश्नव्याकरण, २/४ Jain Education International - " णो पाण-भोयणस्स अतिमत्तं आहारए समा भवई । स्थानांग ९ वाँ स्थान - कभी भी अधिक मात्रा में पान तथा भोजन नहीं करना चाहिए | ऊच्चासणाए, अहियासणाए । स्थानांग ९ वाँ स्थान " अति भोजन और अहित भोजन से रोग उत्पन्न होते हैं । अतिभोजी चोर: इतना ही नहीं, भगवान महावीर तो अति भोजन करने वाले को चोर की श्रेणि में रखते हैं । वस्तुत: अतिभोजी दूसरों का हक छीनता है, दूसरों के अतिभोजी को अपने पेट से ही अवकाश नहीं मिलता, पेट को लात मारता है । (४९७) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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