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________________ किसानों का कृषि कर्म से सम्बन्धित आधुनिक विकसित वैज्ञानिक प्रयोगों का अज्ञान है । कुछ जड़ता ग्रस्त धर्म परम्पराओं का उपदेश है कि कृषि महारंभ है, अतः महापाप है । इस स्थिति में अन्न की निष्पत्ति हो, तो कैसे हो । जो थोड़ा बहुत होता भी है, तो वह जमाखोरों के कब्जे में चला जाता है और फिर चोर बाजार की राह लेता है । और इधर कुछ लोगों को जरूरत से ज्यादा खाने की आदत है । कुछ सामाजिक तथा धार्मिक आडंबरों में एक साथ अनर्गल रूप से अन्न को नष्ट कर देने की परम्परा है । हर वर्ष क्षुधापूर्ति के लिए विदेशों से अन्न मंगाया जाता है , फलत: रोटी के लिए देश पर अरबों का कर्ज लदता जा रहा है। भारत माता के नंगे भूखे बच्चों के चित्र विदेशी पत्रों में प्रकाशित होते हैं और दया के नाम पर लेख लिखे जाते हैं कि भारत भूखा मर रहा है, उसे कुछ देना चाहिए । कैसी शर्मनाक स्थिति है और कुछ लोग हैं कि फिर भी होश में नहीं आते | उसी पुरानी बेढंगी चाल से चलते चले जा रहे हैं | आए दिन समारोहों में, शानदार होटलों में छप्पन प्रकार के मोहन भोग तैयार हो रहे हैं और नंगे कैबरे नृत्यों के साथ हँसाहँस उड़ाए जा रहे हैं। उन रसलोलुप लोगों के पास सारे शरीर में से ऊपर मुख में एक जीभ है और नीचे एक पेट है। लगता है, दूसरा कुछ है ही नहीं ! इन अज्ञानग्रस्त लोगों को पता नहीं कि वे अपने सशक्त कार्यक्षम स्वास्थ्य के प्रति तो भयंकर अत्याचार कर ही रहे हैं, साथ ही अपने ही देश के लाखों भाई बहनों की रोटी भी छीन रहे हैं । उन्हें भूखों मारकर जघन्य पाप के भागी बन रहे हैं । कृषि कर्म, आर्य कर्म : अन्न का एक-एक दाना महत्त्व का है । कृषि कर्म आर्य कर्म है । अल्प सावध कर्म है । अत: अन्न का उत्पादन और संरक्षण दोनों ही जनहित में आवश्यक हैं । त्याग वैराग्य के अनन्त पथ के सफल यात्री भगवान महावीर ने तो अन्नोत्पादन को आर्य कर्म कहा ही है | छान्दोज्ञ उपनिषद् का वैदिक ऋषि भी कहता है- ' अन्नं बहु कुर्वीत तद् व्रतम् ' अन्न अधिकाधिक उपजाना बढ़ाना चाहिए, यह एक व्रत है | 'अन्नं न निंद्यात् ' अन्न की किसी भी तरह अवज्ञा न करो । जैनाचार्य रत्न मंदिर गणी ने लिखा है कि सम्राट विक्रमादित्य एक दिन कहीं जा रहे थे कि उन्होंने धूल में पड़ा अन्न का एक दाना देखा । तत्काल हाथी से उतर कर दाने को उठाया, साफ किया और मस्तक से लगाया । कहते हैं मर्यादा पुरुषोत्तम राम जब वनवासानन्तर लंका विजय कर अयोध्या लौटे तो (५००) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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