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कांप- कांप जाता है । आश्चर्य होता है, अमृत - पुत्र कहे जानेवाले मानव को आज यह हो क्या गया है ? वह अमृत पुत्र मृत पुत्र क्यों हो गया है ? उसके मानवीय दिव्य संस्कार क्यों इस तरह कुसंस्कारों में बदल गए हैं ? क्यों वह मानवता के उच्च शिखर से गिरते-गिरते पशु और कहीं-कहीं तो पशु से भी नीचे गिरकर राक्षस तथा भूत-पिशाच हो गया है ? बात और कुछ नहीं है । अहंकार है अपनी श्रेष्ठता का, अपनी एकान्त सत्यता का । खेद है, जिन बातों में सहमति के कुछ बीज हैं, जिन पर समन्वय दृष्टि से कुछ समझौता हो सकता है, उन पर तो हम विचार करते नहीं । पहले ही दूर के क्रूर मतभेदों को लेकर बैठ जाते हैं, और लड़ने-झगड़ने लगते हैं । प्रस्तुत में हमें तथागत बुद्ध का विचार - पथ अपनाना चाहिए, जैसा कि उन्होंने कहा है- 'जिन बातों से हम सहमत नहीं हैं, उनको अभी जाने दें । जिनमें हम सहमत हैं, उन्हें एक-दूसरे से पूछें, विचार-विमर्श करें ।' यह एक बहुत अच्छा, एक-दूसरे के निकट आने में कोटिशः परीक्षित अमोघ प्रयोग है । इससे भी जरा आगे बढ़कर महाश्रमण भगवान महावीर का अनेकान्त है, जो कांटों में भी फूल खिलता हुआ देखता है, काले धब्बेवाले चांद में भी निर्मल चांदनी का दर्शन कराता है । अनेकान्त दृष्टि से देखो, तुम्हारे शत्रु में भी तुम्हारा मित्र छिपा हुआ है, एकान्त विरोधी के रूप में प्रतिभासित होने वाले कट्टर विरोधी की विरुद्ध बात में भी अमुक अपेक्षा से तुम्हारी अपनी ही अभीष्ट और अविरुद्ध बात स्पष्टतः प्रतिबिम्बित है ।
आज जो धर्म के पवित्र नाम पर सम्प्रदायवाद के कलुषित द्वन्द्व हैं, या देश तथा प्रदेश के नाम पर हत्या तथा लूट-मार है, फिर वह चाहे असम में हो या पंजाब में अथवा अन्यत्र कहीं हो, एकान्ततः स्वार्थलिप्त हठवाद की देन है । दूसरा पक्ष भी कुछ अर्थ रखता है, यह दृष्टि ही लुप्त हो गई है । समितियाँ गठित होती हैं, उनकी बैठकें होती हैं, विचार चर्चा का लम्बा दौर चलता है, परिणाम, वही ढाक के तीन पात । क्यों है ऐसा ? वर्षों हो गए विचार करते हुए, निर्णय क्यों नहीं होता ? इसलिए नहीं होता कि शुद्ध-बुद्धि से निर्णय प्राप्त करने के लिए आपस में मिलकर चर्चा करते ही नहीं । एक-दूसरे पर अनर्गल बेसिर-पांव के दोषारोपण करते हुए बलात् एकमंच पर बैठते हैं और उसी तरह दोषारोपण करते हुए अपने घरों की राह पकड़ लेते हैं। और फिर समाचार पत्रों में वह बयानबाजी शुरू होती है कि सन्देह होता है, ये बोलने वाले आदमी हैं, या भौंकने वाले कोई और ? वही हाल धार्मिक मंचों का है, जिनका मुझे स्वयं काफी कटु अनुभव है । चार-चार महीने तक लंबी चलने वाली धर्म- चर्चाओं में एकत्व
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