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एवं समन्वय के नाम पर केवल शून्य बिन्दु । लाखों का अन्धाधुन्ध खर्च करने के बाद, श्रम या प्रपंच से प्राप्त अपनी प्रिय कमाई को पानी की तरह बहाने के बाद, इन धर्मसम्मेलनों से समाज को मिलता है, असत्य, दम्भ, कलह, विग्रह, व्यर्थ की तू-तू मैं-मैं | भूल गए हैं हम केशी-गौतम के मैत्रीपूर्ण प्रिय संवादों को। यदि अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और अहंकार से परे किन्हीं के मन में समाज, राष्ट्र
और धर्मसंघों की कुछ भी हिताकांक्षा है, तो उन्हें अपने पूर्वज महापुरुषों के विचार-पथ का अनुगमन करना चाहिए और विरोध में भी अविरोध या भेद में भी अभेद का तथा असहमति में भी सहमति का कोई न कोई समन्वयवादी रूप तलाशना चाहिए ।
दिसम्बर १९८३
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