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________________ महावीर के काल का केशी-गौतम संवाद | यह श्रावस्ती का संवाद जैन इतिहास का महत्त्वपूर्ण संवाद है । दोनों महर्षियों की उदार दृष्टि विलक्षण है । एक-दूसरे को जिन प्रिय शब्दों से सम्बोधित करते हैं, उनमें से मधुर-रस झरता है, अमृत बरसता है । संप्रदाय भिन्न हैं, फलतः अमुक अंश में आचार और विचार भी भिन्न हैं । काफी शासन-भेद हैं, क्योंकि दोनों ही भिन्न गुरुओं की परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं । फिर भी सहोदर बन्धु के समान एक ही आसन पर बैठे हैं और एक विराट् सभा में पक्षग्रह से मुक्त होकर जय-पराजय की भावना से परे की मनोभावना में विचारचर्चा करते हैं और परिणाम आता है, आचार-विचार की दृष्टि से विभिन्न दिशा में प्रवहमान दोनों धाराएँ, गंगा-यमुना की तरह मिलकर एक धारा में प्रवाहित हो जाती हैं । विभिन्न वादों के मतभेदों को समन्वय के धरातल पर लाकर मित्र रूप में उपस्थित करने के लिए श्रमण भगवान महावीर का अनेकान्त दर्शन भी अतीव उपयोगी सिद्ध होता है । अनेकान्त विरोध रूप में प्रतिभासित हुए भेदों में अविरोध की, अभेद की दृष्टि देता है । इस दर्शन में एकान्त और सर्वथा सत् या असत् जैसा कुछ नहीं है । जो भी है, उभयरूप है, सदसत् रूप है । अत: आचार्य अमृतचन्द्र ने इसे 'विरोधमथनम्' कहा है । जहाँ अनेकान्त है, वहाँ विरोध कैसा, विद्वेष कैसा ? बात यह है कि हर पक्ष में अमुक अंश में कुछ-न-कुछ समन्वय का आधारभूत सत्य रहता ही है। यदि व्यापक दृष्टि से विचार किया जाए तो निषेध में, इन्कार में भी विधि एवं इकरार रहता है । अपेक्षा है, पक्षमुक्त समन्वय शैली की । यह अनेकान्त, जिस बात को तुम एकान्त बेठीक एवं गलत ही समझ रहे हो, जिसमें समझौते का तुम्हें कुछ भी अंश न दिखाई दे रहा हो, उसमें भी तुम्हें कुछ ठीक और सही अंश दिखा देगा, अन्तत: समझौते का मार्ग प्रशस्त कर देगा । वैचारिक एवं बौद्धिक अहंकार को, हठवादिता को दूर करने का अनेकान्त के समान दूसरा कोई दर्शन नहीं है । अत: विरोध को दूर करने के लिए यथाप्रसंग अनेकान्त चिन्तन का आश्रय लेना चाहिए । यह दूरी को कम करेगा और परस्पर विरोधी तटों पर दूर खड़े हुए पक्षों को एक-दूसरे के निकट लाएगा । आज जो व्यक्ति-व्यक्ति में, जाति-जाति में और मत-पन्थों में परस्पर अर्थहीन संघर्ष हो रहे हैं, और उनके फलस्वरूप जनता में जो अनार्य आचरण फूट पड़ा है, जब हम उसकी रक्तरंजित खबरें समाचार पत्रों में देखते हैं, तो हृदय (२७४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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