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“ अनुव्रजन्ती भर्त्तारंगृहात पितृवनं मुदा ।
पदे - पदे अश्वमेधस्य फलं प्राप्नीत्य संशयम् ||"
जो नारी अपने मृत पति का अनुसरण करती हुई घर से श्मशान की ओर प्रसन्नता के साथ जाती है, वह पद-पद पर अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करती है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है ।
स्कन्ध पुराण, ब्रह्म खण्ड
इस प्रकार के धर्म और लोग दोनों ही दृष्टियों से अयुक्त अनेक वचन यत्र-तत्र पुराणों तथा तत्कालीन अन्य साहित्य में भी मिलते हैं । खेद है, मनुष्य, जो बुद्धिमान एवं सामाजिक प्राणी कहा जाता है, परन्तु यहाँ उसकी सर्वोत्तम बुद्धि एवं सर्वोत्तम समाज जंगल में कहाँ घास चरने चले जाते हैं, इस प्रकार के कथनों को आँख बन्द कर धर्म मानने वाला व्यक्ति अपने को मनुष्य भी कैसे कह सकता है ? इस प्रकार के क्रूर कर्म सर्वाधिक जघन्य पशु ही नहीं, दानव ही कर सकते हैं । मैं इस प्रकार के ग्रन्थों को कथमपि धर्म-ग्रन्थ नहीं मान सकता। मैं ही क्यों, कोई भी विचारशील व्यक्ति तटस्थ एवं पक्ष-मुक्त दृष्टि से विचार करे, तो वह स्पष्ट ही मेरे जैसे विचार- पक्ष के लोगों की पंक्ति में सत्साहस के साथ आ खड़ा होगा ।
आवश्यक है कि इस प्रकार के पौराणिक साहित्य में से जो अंश न्यायोचित नहीं हैं, सामाजिकता एवं धर्म की भावनाओं से शून्य हैं, उन्हें पदच्युत अर्थात् अमान्य कर दिया जाए । और जो अंश मानव-जीवन के मंगल, कल्याण एवं उत्थान के साधन हैं, उनकी प्राणपण से रक्षा की जाए । यह कोई नई बात नहीं है । मनुस्मृति के तृतीय अध्याय में जो श्राद्ध का वर्णन है, उसमें ब्राह्मण के लिए मछली, बकरा, हिरण और भैंसे आदि के मांस का भोजन विहित है । किन्तु वैष्णव- समाज ने उसे अमान्य कर दिया तो यह वैचारिक क्रान्ति आज हमारे लिए गौरव की चीज है ।
और तो और, कर्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद् गीता में प्रकृति परायण वेदों को भी अपदस्थ किया है । अर्जुन से वे स्पष्टत: कहते हैं- वेदों का विषय त्रैगुण्य अर्थात् भोगात्मक कामना प्रधान है । अत: तुम निस्त्रैगुण्य अर्थात् त्रिगुणातीत निष्काम एवं निर्द्वन्द्व बनो -
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।। " गीता, २,४५
(४७७)
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