SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है। जब कि विधुर पुरुष के लिए ऐसा कुछ नहीं है । प्रश्न का समाधान निकट आ रहा है कि नारी क्यों सती हो जाती है, खास कर अभिजात वर्ग की । समाज में विधवाओं की दुर्दशा देख और सुनकर उसकी मानसिक स्थिति बन जाती है – इस हर क्षण पीड़ा पाने वाले जीवन जीने से तो मर जाना ही अच्छा है और वह अधिकतर इसी भावावेश में पति के साथ अपने प्रिय प्राणों की आहुति दे डालती है । जीवित व्यक्ति का अग्नि प्रवेश भयंकर रोमांचकारी दृश्य है । मैं नहीं समझ पाता कि इस दूर-दृश्य को हजारों लोग अपनी आँखों से कैसे देखते हैं, साथ ही झालर, शंख, ढोल बजाकर आनन्दोत्सव मनाते हैं । यह धर्म का विकृत रूप ही है कि मानव की आँखें रोने की जगह हंसने लगती हैं । वैधव्य दशा में नारी का जीवन सेवा के रूप में मानव समाज के लिए तथा धर्मानुष्ठान के द्वारा अपनी पवित्रता के लिए उपयुक्त हो सकता था, वह अकाल में ही काल के गाल में पहुंच जाता है | व्यर्थ ही अन्ध परम्परा का शिकार हो जाता है | धर्म-ग्रन्थों के नाम पर प्रचलित अमानवीय परंपराओं की कोई सीमा नहीं है । धर्मान्ध एवं स्वार्थान्ध पुरुष-जाति ने सती होने के लिए अनेक मन-गढंत रचनाएँ भी की हैं | और उसे सती होने के लिए उत्साहित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है । वह भावावेश में आ जाए और अपने को स्वर्ग की देवी बनाने के लिए सहज ही अग्नि में जल कर भस्म हो जाए । इस तरह की धार्मिक उद्घोषणाएँ भी की गई हैं । पद्म पुराण (सृष्टि खण्ड ) में लिखा है- “ पति की मृत्यु यदि कहीं दूर के स्थान में हो जाए और उसका शव न मिले तो पति की किसी वस्तु के साथ जो स्त्री चिता की अग्नि में प्राण-त्याग करती है, वह अपने पति का पाप से उद्धार करती है । और स्वयं भी स्वर्ग में पहुंच जाती है " "पतिव्रता च या नारी देशान्तरमृतेपतौ, साभर्तुश्चिह्नमानाय वह्नौसुप्त्वा दिवं व्रजेत ।।" पद्मपुराण, ५४, ७१ स्कन्ध पुराण का कथन तो अत्यन्त विचित्र है । वह अज्ञान एवं अन्ध-परम्परा की दास नारी को मृत पति के साथ जल मरने के लिए प्रान्त किए बिना कैसे रह सकता है । स्कन्ध पुराण के ब्रह्म खण्ड में कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy