________________
जिसके समक्ष आषाढ मास के एक निर्धारित दिवस पर सात-आठ हजार निर्दोष छोटे-बड़े, बच्चे, बूढ़े, युवा बकरे एक दिन में काट डाले जाते हैं । ढोल बजाकर नाचते-गाते और देवी के स्तुति गीत गाते हजारों स्त्री-पुरुष यह उत्सव मनाते हैं । और यह उत्सव मनाया जाता है, मनु के इस वचन पर कि
" यज्ञार्य पशवः स्रष्टा तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ।।"
__ मनुस्मृति, ५, ३९
अर्थात् ब्रह्मा ने यज्ञ के लिए पशुओं को स्वयं बनाया है । इस कारण यज्ञ में पशु का वध, वध नहीं है । वह अधर्म नहीं, धर्म है । इस प्रसंग में आगे चलकर यज्ञ में पशु को मारने वाला व्यक्ति और मरने वाला पशु दोनों स्वर्गादि रूप उत्तम गति में जाते हैं, यह दुर्विधान है
" आत्मानं च पशुं चैव गमयत्युत्तमां गतिम् ” मनुस्मृति, ५, ४२
और भी अनेक बातें हैं, जो अत्यन्त ही हेय हैं । प्रस्तुत प्रसंग में मैं सती प्रथा की चर्चा कर रहा हूँ। जिस नारी के लिए मनु यह कहता है- जहाँ नारी की पूजा एवं प्रतिष्ठा होती है वहाँ देवता क्रीड़ा करते हैं-" यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः ।" वहाँ दूसरी ओर उसे न वेद पढ़ने का अधिकार है, न यज्ञोपवीत का और न अन्य किसी विशिष्ट धर्मानुष्ठान का | इस प्रकार उसे अत्यन्त हीन कोटि में पहुँचा दिया है । विचित्र स्थिति है, पत्नी अर्धांगी मानी गई है । इसका अर्थ हुआ कि ब्राह्मण आदि उत्तम जाति के सज्जनों का अपना आधा अंग पवित्र है, तो आधा अंग अपवित्र है । और उसी अपवित्र अर्धांग से उत्पन्न पुत्र पवित्र होता है और उस अपवित्र आधे अंग द्वारा सम्पादित भोजन को खाकर भी अपने को पवित्र माना जाता है, विचित्र स्थिति है बौद्धिकता की । व्यक्ति उच्च हो या नीच उसके आयु कर्म का अन्तिम परिणाम है । यहाँ सभी भारतीय आस्तिक धर्म एक मत है । किन्तु दुर्भाग्य है नारी का कि युवा अवस्था में पति मर जाए, तो उसे कुलक्षणी, दुष्टा, दुराचरणी आदि दुर्वचनों से सम्बोधित किया जाता है । पत्नी मर जाए, तो पुरुष को कुछ नहीं कहा जा सकता । परन्तु, मृत्यु पर्यन्त उस नारी को जो व्यथा-पीड़ा भोगनी पड़ती है, वह नरक की यातना से कुछ कम नहीं होती | वह जीवित ही एक प्रकार से मृत हो जाती है । किसी भी शुभ कार्य में उसका दर्शन हो जाना अपलक्षण अर्थात् अपशकुन माना जाता
(४७५)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org