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________________ घोर तपस्या कर-करके उसने अपने शरीर को तो कृश बना लिया था, किन्तु अपनी आत्मा के कषाय भाव को वह दूर न कर सका । एक दिन वह अपने गुरु के चरणों में आया और आकर विनम्र भाव से बोला-"गुरुदेव! उग्र और कठोर तपस्या करते-करते यह शरीर सूख गया है, अब इस शरीर में शक्ति और बल नहीं रहा । आप मुझे संथारा करने की आज्ञा दीजिए ।” गुरु ने कहा-"अभी से संथारा करने की आज्ञा कैसे दी जा सकती है? अरे वत्स!-"जुरेहि अप्पाणं" अभी अपने आपको और कृश करो | वह शिष्य फिर तपस्या करने चला गया । अब तक वह एक दिन उपवास और एक दिन पारणा करता था, अब वह दो दिन उपवास कर के पारणा करने लगा । कुछ समय बाद फिर गुरु के पास आया और बोला--"मुझे संथारा करने की आज्ञा दीजिए ।" गुरु ने फिर वही बात कही--"अपने आपको और कृश करो ।" शिष्य पुनः तप-साधना के लिए लौट गया । अब की बार उसने और अधिक कठोर साधना की । तीन दिन उपवास करता और एक दिन पारणा करता । कुछ काल तक यह कठोर साधना करके वह फिर गुरु के समीप आया और बोला-"गुरुदेव! अब तो संथारा की आज्ञा दीजिए ।" गुरु ने सहज भाव से फिर वही बात कह दी--"अभी अपने को और कृश करो क्षीण करो ।” गुरु के इस वाक्य को सुनकर शिष्य के मन को प्रसुप्त क्रोध रूप विषधर पूर्ण जागृत हो गया, आंखें अंगारे जैसी लाल हो गईं, होठ फड़ फड़ाने लगे और शरीर कांपने लगा | क्रोध के वशीभूत होकर, उसने अपने हाथ की एक अत्यन्त कृश उँगली तोड़कर गुरु के सामने फेंक दी और क्रोध की भाषा में बोला-"बताइए अपने आपको और कितना कृश करूँ ? सारा शरीर तो सूख गया है, रक्त की एक बूंद भी शेष नहीं है, फिर भी आप एक ही बात कहे जा रहे हैं, कि अपने आपको और कृश करो ।” गुरु ने प्रेम भरे शब्दों में और शान्त स्वर से कहा-"वत्स! मेरा अभिप्राय शरीर को क्षीण करने से नहीं है । शरीर भले ही स्थूल हो अथवा कृश हो । शरीर के मोटेपन से और पतलेपन से साधना में कुछ बिगड़ता-बनता नहीं है । मेरा अभिप्राय था, मन को और मन के विकारों को क्षीण करने से । तुम्हारा अन्तस्तल कषाय से अधिकाधिक स्थूल हो रहा है, उसे पतला करने की आवश्यकता है । इतने वर्षों तक तुमने उग्र, घोर और उत्कृष्ट तपस्या की, किन्तु अपने अन्दर के कषाय-भाव को जीत नहीं सके । क्रोध को जीता नहीं, मान को जीता नहीं, माया को जीता नहीं और लोभ को जीता नहीं। भूखा-प्यासा रहना, तपस्या नहीं है । सच्ची तपस्या है, अपने कषायभाव को जीतना । मन के विकार और विकल्पों को जीतना ही सच्ची साधना है । इतने वर्षों तक तुमने तप की साधना की, कठोर आचार का पालन किया । (४४६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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