SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बिगड़ता है? लाठी के प्रहार बाँबी पर पड़ते हैं और अज्ञानी लोग यह समझते हैं कि हम साँप को मार रहे हैं। बाँबी को पीटने मात्र से साँप का कुछ नहीं बिगड़ सकता है, क्योंकि वह तो अन्दर सुरक्षित बैठा है । इसी प्रकार कुछ साधक इस शरीर से लड़ते हैं, हठ और आवेश में तपस्या कर-कर के इस शरीर को कृश और दुर्बल बना डालते हैं, लेकिन इस बेचारे शरीर का क्या दोष है ? इस शरीर का पीड़न करने से क्या परिणाम निकला? इस शरीर को आग की जलती ज्वालाओं में भी डाल दिया, तो क्या उससे आत्म-कल्याण हो सकेगा ? बात यह है कि जो वासना है, जो विकार है और जो विकल्प है, वह शरीर में नहीं है, वह शरीर के अन्दर रहने वाले मन में है । हम उस विकार रूपी सर्प को तो मारते नहीं, मारते हैं उसकी शरीर रूपी स्थूल बाँबी को, परन्तु, इतने मात्र से तो वासना, विकार और विकल्प का सर्प मारा नहीं जा सकता । वह एक गुप्त स्थान में बैठा हुआ है, उस पर तो आपकी साधना की एक भी चोट नहीं लगती है, चोट लगती है शरीर पर परन्तु याद रखिए, जब तक अन्तर्मन पर चोट नहीं लगेगी, तब तक उसके विकार और विकल्प दूर नहीं होंगे । मन के विकार और विकल्पों को दूर करना ही अध्यात्म-साधना का एक मात्र लक्ष्य है । उसका उपाय यही है, कि इस तन की बाँबी में बैठे मन के विषधर पर ही साधना का प्रहार किया जाए । भारतीय साधना का लक्ष्य आन्तरिक विकारों का प्रशमन है । यह तन की बाँबी और इन्द्रिय हमारी साधना के लक्ष्य नहीं हैं । शरीर को नष्ट करने से और शरीर को कष्ट देने मात्र से ही यदि आत्मा का कल्याण सम्भव होता, तो कैलाश पर्वत पर अतिवादी साधना करने वाले तापसों का कल्याण कभी का हो गया होता किन्तु उस अतिवादी साधना से उनके मन के विकार और विकल्प टूटे नहीं । तमसाच्छन्न मिथ्यात्व भूमिका से एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाए । गणधर गौतम के उपदेश से जब उनकी दृष्टि बदली, तब ही उन्हें केवलज्ञान और केवलदर्शन की उपलब्धि हो सकी । जैन धर्म यह कहता है कि किसी भी प्रकार की साधना करो, जप की, तप की, आचार की अथवा ध्यान की, परन्तु मुख्य रूप से अपने मन के विकार और विकल्पों को दूर करने का ही प्रयत्न होना चाहिए । जो तप हमारी मन की शान्ति को भंग करता है, अथवा मन के समाधिभाव को भंग करता है, वह तप, तप नहीं है, वह साधना, साधना नहीं है । प्राचीन साहित्य में एक कथा आती है, कि एक गुरु का एक शिष्य था । वह उग्र तपस्वी और घोर तपस्वी था, लेकिन जितना बड़ा वह तपस्वी था, उससे भी अधिक वह क्रोधी था । बड़ी उग्र और (४४५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy