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________________ एकान्त निषेध है और न किसी बात का एकान्त विधान ही है । जैन दर्शन साधना के मूल स्रोत अनेकांत दृष्टि को महत्त्व देता है । यदि दृष्टि सम्यक् नहीं है, तो फिर कितनी भी अतिवादी साधना क्यों न हो, उससे संसार की अभिवृद्धि ही होती है । वह साधना मोक्ष का अंग नहीं बनती है । जैन-धर्म की आचार-साधना में उत्कृष्ट, उग्र आदि शब्दों का प्रयोग तो किया गया है, किन्तु अतिवाद का प्रयोग नहीं किया है मैं आपसे साधना के विषय में विचार कर रहा था । साधना, साधना है और उसका प्रयोजन है, जीवन की निर्मलता और पवित्रता । अतिवादी साधना से देह का पीड़न और मन की अशान्ति ही बढ़ती है । जब मन में समाधि भाव न हो, तब उस साधना को फिर भले ही वह कितनी भी उग्र, घोर और प्रचण्ड क्यों न हो, उसे धर्म नहीं कहा जा सकता । मैं आपसे कह चुका हूँ, कि तापस-युग के तापस अतिवादी साधक थे । तापसों के अतिरिक्त अन्य कुछ साधकों में भी यह अतिवाद उपलब्ध होता है । बौद्ध दर्शन में धूतांग साधक का वर्णन एक अतिवादी वर्णन है, किन्तु वहाँ कहा गया है कि कितना भी घोर क्रिया - काण्ड क्यों न किया जाए, यदि मन में समाधि नहीं है, तो कुछ भी नहीं है। उग्र तप, घोर साधना और प्रचण्ड क्रियाकाण्ड का विधान केवल जैन धर्म में ही नहीं है, वैदिक धर्म और बौद्ध धर्म में भी कठोरतम साधनाओं का और उग्रतम तपों का विधान किया गया है। जैन धर्म की अपनी विशेषता यह है कि वह तप, साधना और क्रियाकाण्ड से पूर्व दृष्टि को महत्त्व देता है । सम्यक् - दृष्टि की अल्प साधना भी निर्जरा का हेतु होती है और मिथ्या-दृष्टि की घोर साधना भी बन्ध का हेतु ही होती है । भगवान पार्श्वनाथ ने कमठ तापस को उसकी अज्ञानमूलक क्रिया को छोड़ने के लिए जो उपदेश दिया था, वह इस बात का सूचक है, कि तप और अन्य कठोर साधना से पहले दृष्टि सम्यक् बनाना परमावश्यक है । गणधर गौतम ने भी कैलाश-वासी तापसों को जो उपदेश दिया था, उसका सार भी यही है, कि तुम्हारा तप तो बहुत भयंकर है, किन्तु अभी तक, तुम्हें विवेक का प्रकाश नहीं मिला है । अत: जब तक विवेक प्राप्त न हो, सभी प्रकार की साधना व्यर्थ है । कल्पना कीजिए, जंगल में किसी बाँबी में साँप बैठा हैं । कुछ अज्ञान लोग साँप को मारने के लिए बाहर में बाँबी को पीटते हैं उसी पर प्रहार कर रहे हैं, तो क्या बाँबी को पीटने मात्र से अन्दर बैठा भयंकर विषधर मर सकता है ? बाँबी पर कितना भी प्रहार क्यों न किया जाए, उससे अन्दर बैठे सर्प का क्या (888) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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