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________________ के ऊपर आने वाले शैवाल को खाकर ही गुजारा कर लेते थे कुछ तापस सूखे पत्ते और सूखी घास ही खाकर तपस्या करते थे । कुछ तापस मात्र हवा खाकर ही अपना जीवन यापन करते थे । यहाँ तक वर्णन आता है कि गाय का गोबर खाकर भी वे अपनी जीवन वृत्ति को धारण करते थे । इस प्रकार भगवान पार्श्वनाथ के युग के तापस घोर क्रिया-काण्डी और अतिवादी साधक थे । एक बार भगवान पार्श्वनाथ जब कि वे राजकुमार थे, वाराणसी में गंगा तट पर तप कर रहे कमठ तापस के पास पहुँचे । वह अपने युग का प्रसिद्ध तापस था । वह भयंकर ग्रीष्म काल में भी अपने चारों ओर दहकती धूनी जलाकर मस्तक पर सूर्य का प्रचण्ड ताप सहन करता था | उसके उक्त प्रचण्ड तप को देखकर उस समय पार्श्वनाथ के श्रीमुख से यह वाक्य निकला था "अहो कष्टं अहो कष्टं पुनस्तत्त्वं न ज्ञायते ।" तप साधना में कष्ट, देह दमन तो बहुत बड़ा है, किन्तु तत्त्वबोध अभी नहीं है। प्राचीन साहित्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि एक दिन भारतवर्ष के विशाल जंगलों में तापसों का साम्राज्य था | उनके उग्र क्रिया-काण्ड को देखकर, भगवान् बुद्ध को भी बड़ा आश्चर्य हुआ था | मालूम होता है कि अधिक से अधिक देह को कष्ट देना ही तापस लोग अपनी साधना का लक्ष्य समझते थे । मैं समझता हूँ, इतनी उग्रवादी और अतिवादी साधना अन्यत्र दुर्लभ है । मात्र क्रियाकाण्ड पर ही इन लोगों का भार था । क्रिया के साथ विवेक का महत्त्व उन्होंने नहीं समझा था । विवेक तो साधना का प्राण है । किसी भी प्रकार की साधना में यदि विवेक का प्रकाश नहीं है, तो वहाँ कुछ भी नहीं है । मुझे विचार आता है कि जैन धर्म कठोर साधनाओं को महत्त्व देता है अथवा विचार और विवेक को महत्त्व देता है । भगवान महावीर ने कहा है--"पढमं नाणं तओ दया।" पहले ज्ञान और विवेक है, फिर आचार और साधना है । तप की साधना करना अच्छा है, किन्तु मर्यादा-हीनता के रूप में अति तप और अति साधना करना अच्छा नहीं है । जैन धर्म और जैन संस्कृति में किसी भी प्रकार के अतिवाद को अवकाश नहीं है । क्योंकि अतिवाद एकान्तवाद पर आश्रित होता है और जो भी एकान्त है, वह सम्यक् नहीं हो सकता और जो सम्यक् नहीं है, वह जैन साधना का अंग नहीं बन सकता । जैन धर्म की साधना में न किसी बात का (४४३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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