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________________ तुम्हारा प्रहार इस तन की बाँबी पर ही होता रहा, किन्तु अन्दर में बैठे क्रोध के विषधर पर प्रहार करने का तुमने प्रयत्न नहीं किया । इसलिए तुम्हारी .तप की साधना निष्फल है, व्यर्थ है । जब तुम क्रोध में अपने अंग को ही तिनके की तरह तोड़कर फेंक सकते हो, तब तुम यदि दूसरे पर क्रोध करो, तो उसकी तो गर्दन ही मरोड़ दोगे ।" मैं आपसे कह रहा था, कि साधना कितनी भी उग्र क्यों न हो, यदि उसमें मन के विकार और विकल्पों को दूर करने की क्षमता नहीं है, तो वह साधना सब व्यर्थ है, अर्थहीन है । एक बार विहार करते हुए हम एक ग्राम में ठहरे | वहाँ के लोगों ने व्याख्यान देने के लिए आग्रह किया । व्याख्यान प्रारम्भ हो गया । एक बहन सामायिक लेकर व्याख्यान सुन रही थी | व्याख्यान समाप्त हो गया और उपस्थित सभी श्रोता धीरे-धीरे चले गए, केवल वह बहन अभी भी बैठी ही रही । कारण यह था कि वह कुछ देर से आई थी और अभी उसकी सामायिक पूर्ण होने में कुछ विलम्ब था । उसके पास दो रेत की घड़ियाँ थीं, जो उसने अपने दाएँ और बाएँ रखी हुई थीं । वह कभी इस घड़ी को हिलाती और कभी उस घड़ी को हिलाती । यह तमाशा बहुत देर से चल रहा था । आखिर मैंने उस बहन से पूछा--"तुम यह क्या कर रही हो?" उसने कहा-“महाराज मैंने दो रेत घड़ी रखी हैं, उससे मेरी दो सामायिक हो जाएँगी । एक इस घड़ी से और दूसरी उस घड़ी से । मैं घड़ी को बार-बार इसलिए हिला रही हूँ, कि ऊपर की रेत शीघ्र ही नीचे चली जाए, जिससे कि मेरी सामायिक शीघ्र पूरी हो जाए ।" आप इस घटना को सुनकर हँस सकते हैं और हँसी की यह बात भी है । भोली श्राविका को यह भी परिबोध नहीं कि सामायिक आत्मा की वस्तु है, या बाहर की वस्तु है । वह सामायिक के काल-परिमाण की जानकारी के लिए रखी जाने वाली रेत की घड़ी को ही सामायिक समझे हुए हैं और इस प्रकार एक मुहूर्त में दो घड़ियों से दो सामायिक करना और फिर उसमें भी शीघ्रता करना, घड़ी को बार-बार हिलाना, जिससे कि रेत शीघ्र ही ऊपर से नीचे आ जाए | यह परिहास नहीं तो और क्या है ? सामायिक करना अच्छा है, बहुत अच्छा है, किन्तु विवेक के अभाव में इस उत्तम साधना का भी मजाक बन जाता है । सामायिक की साधना का लक्ष्य है, मन में समता-भाव बढ़े, ज्ञान की ज्योति जगे, किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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