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________________ इतिहास को भूल जाते हैं, साधना को भूल जाते हैं, तो पतन की गर्त में गिरते जाते हैं । अपने पूर्वजों की साधना को भूल जाते हैं और उनके दो-चार बाह्य शब्दों को पकड़ कर आगे पूर्ण विराम लगा देते हैं, तब यही स्थिति होती है । साधना के क्षेत्र में निरन्तर गति करते रहो, जीवन के उत्तुंग-से-उत्तुंग शिखरों पर आरोहरण करते रहो । वस्तुत: जीवन-यात्रा में पूर्ण विराम है ही नहीं । साधना की सिद्धि महान अर्हन्त स्वरूप और उससे भी आगे सिद्ध स्वरूप तक पहुंच जाएँगे, तभी पूर्ण विराम लगेगा । साधना के यथार्थ स्वरूप को भूलकर उसके बाह्य क्रिया-काण्ड रूप स्थूल शरीर को पकड़कर पूर्ण विराम लगा देना कि यह क्रिया-काण्ड ही धर्म है, अज्ञान है । उन्हें सम्यक्-बोध नहीं है, जो ऐसे गलत पूर्ण विराम लगाते हैं । प्रूफ रीडिंग ठीक करना होगा । बाह्य दृष्टि में उलझे तथाकथित धर्म गुरुओं को सम्यक् प्रुफ देखना नहीं आता । इसलिए धर्म को, साधना के सही रूप को भूल कर गलत पूर्ण विराम लगाया जा रहा है । ज्ञान से ज्योतित उस महान परम्परा की महत्ता रही है । उस युग में मात्र बाह्य परम्परा का ही नहीं, ज्ञान का महत्त्व रहा है । आचार्य अकलंक, जिन्हें आचार्य पद बाद में मिला, उस समय मुनि थे, सन्त थे । देखा उन्होंने बौद्ध-परम्परा के धर्म कीर्ति जैसे महान आचार्यों के तर्क की पैनी धार जैन-दर्शन को काटती जा रही है | उस महान सन्त ने सोचा - इस तरह तो सब समाप्त हो जाएगा । इनके दुर्ग का भेदन करने के लिए उनके तर्कों का भी बोध करना चाहिए । इसके लिए बाहर में बौद्ध भिक्षु का वेश धारण कर बौद्ध-विहार में रह कर बौद्ध-दर्शन का गहन अध्ययन किया । इसी का परिणाम है, आज जैन-दर्शन पर, सिर्फ जैन-दर्शन पर ही नहीं, पूरे भारतीय-दर्शन पर आचार्य अकलंक छाया हुआ है । जिसने उस पैनी धार का उत्तर उससे भी अधिक पैनी धार से दिया । यदि आज की तरह अकलंक ज्ञान पर, चिन्तन पर पूर्ण विराम लगा देते, तो वह लकीर का फकीर ही बना रहता । न तो स्वयं ऊपर उठता और न जैन - दर्शन के गौरव को बढ़ा सकता । वह केवल भीख मांगनेवाला भिक्षु नहीं था | भिक्षु का सम्यक् अर्थ है समदर्शी आचार्य हरीभद्र के शब्दों में - "भिनत्तीति भिक्षुः"- जो तोड़ता जाता है, वह भिक्षु है । जो अज्ञान के अंधेरे को भेदन करता है, अर्थात रूढ़ परम्पराओं के अवरोधों को तोड़ता है, साम्प्रदायिक दीवारों को तोड़ता है, अपनी संकीर्ण मान्यताओं के एकान्त आग्रह और दुराग्रह को तोड़ता है, वह भिक्षु है | मात्र भीख माँगते रहने वाला भिक्षु नहीं, भिखारी है । वह कभी भी विकास (४३४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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