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उत्तरकालीन भारत की समग्र सन्त-परम्परा अहिंसा, करुणा, दया की इतनी पक्षधर है कि यदि उनके प्रमाण-वचनों का संकलन किया जाए, तो एक विराट-काय ग्रन्थ ही बन जाए । फिर भी, उसमें सबको संग्रहित नहीं किया जा सकेगा ।
किन्तु, आज खेद है कि अहिंसा के पुजारी भारत का ही नहीं, समग्र विश्व का मानव अहिंसा भगवती को भूलता जा रहा है | आज का मानव अपने क्षुद्र स्वार्थों में इतना अधिक लिप्त हो गया है, कि उसे अपने जीवन के अतिरिक्त दूसरा कोई जीवन, जीवन ही नहीं दिखाई देता है । यही कारण है कि आज नाना रूपों में हिंसा-राक्षसी अपना खुला नग्न नृत्य कर रही है । मानव का हृदय, हृदय न रहकर मात्र एक मांस का पिण्ड रह गया है । यदि उसे मांस-पिण्ड ही नहीं, सीधे-सपाट शब्दों में अनगढ़ पत्थर ही कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी | जिस हृदय में किसी के सुख में हर्ष की और दुःख में पीड़ा की अनुभूति न हो, तो वह पत्थर नहीं, तो फिर क्या है ? एक पत्थर के समक्ष दूसरे पत्थर को तोड़ा जाता है, तो उसमें अनुकम्पन की कोई हल-चल होती है क्या ? आज का मनुष्य इसी स्थिति में पहुँचता जा रहा है । प्रात:काल उठते ही मनुष्य अखबार पढता है, तो मुख पृष्ठ पर कोई-न-कोई रक्त-रंजित घटना की खबर पढने को मिलती है । और, उसे पढ़ कर, वह झटपट आगे चल पड़ता है | जैसे यह कोई खास बात नहीं हुई। सुबह, मध्यान्ह और सायं, जब भी कभी कहीं से भी रेडियो स्विच आन करें, तो कहीं-न-कहीं धरती पर निरीह मानव के रक्त बहने की क्रूर-ध्वनि सुनाई पड़ती है | यह रक्त बहाया जा रहा है, कहीं जाति के नाम पर, कहीं राष्ट्र के नाम पर और कहीं पवित्र धर्म के नाम पर । एक प्रकार का उन्माद, बेतुका पागलपन छाया हुआ है, मानव के मन, वाणी और कर्म पर | कोई उस पागल बने मानव से पूछे-यदि धरती के अन्य सब मनुष्य नष्ट हो जाएँ, तो तू धरती पर नंगे भूत की तरह भटकता फिरेगा, तब तेरा क्या होगा ?
आज पर्यावरण एवं प्रदूषण के रूप में न अन्न शुद्ध रहा है, न जल और न हवा । हर साँस के साथ मनुष्य एवं मनुष्येतर प्राणियों के अन्दर एक भयंकर प्राण-लेवा विष निरन्तर व्याप्त होता जा रहा है ।
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