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अतः जो यथार्थ में धर्मार्थी - जन हैं, उन्हें प्राणि मात्र के प्रति अहिंसा अर्थात् दया और प्रेम का मानवोचित व्यवहार करना चाहिए । मूल पाठ है, महर्षि व्यास के शब्दों में
अहिंसा लक्षणो धर्मः, अधर्म: प्राणिणां वध: ।
तस्मात् धमार्थीभिर्लोकैः कर्तव्या प्राणिणां दया ॥
प्रश्न है, यदि अहिंसा ही धर्म है, तो सत्य, अस्तेय आदि क्या हैं ?
समाधान के लिए कहीं दूर जाने की अपेक्षा नहीं है । असत्य क्यों नहीं बोला जाए ? इसलिए कि असत्य वचन से दूसरों के मन को पीड़ा होती है । इसी प्रकार चोरी, व्यभिचार तथा लोभान्वित परिग्रह भी पर पीड़ाकारी होने से त्याज्य हैं । इस से अन्य प्राणियों को हानि पहुँचती है तथा सामाजिक हितकर व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती है । इसलिए श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञान का सार-तत्व अहिंसा को बताया है । सूत्रकृतांग सूत्र में भगवान के अमृत-वचन हैं
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एवं खु नाणीणो सारं, जं न हिंसइ किंचनं
भगवान महावीर के महान उत्तराधिकारी अनेक आचार्यों में आचार्य श्री जिनदासगण का अतीव गौरवास्पद स्थान है । उन्होंने अहिंसा के सर्वव्यापी महत्ता के सम्बन्ध में कहा है- अहिंसा ही एक मूल महाव्रत है, जिसमें अन्य सत्य आदि सभी महाव्रत समाहित हो जाते हैं ।
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सम्पूर्ण जैन - वाङ्मय अहिंसा से पूर्णत: ओत-प्रोत है । अतः इसी दृष्टि से जैन-धर्म और अहिंसा पर्यायवाची शब्द बन गए हैं । जैन धर्म का नाम लेते ही प्रबुद्ध विचारकों के मन में अहिंसा थिरकने लगती है ।
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तथागत बुद्ध करुणा के दिव्य अवतार पुरुष हैं ।
उनकी अमृतमयी
- वाणी में यत्र-तत्र मैत्री, करुणा आदि नामों के रूप में अहिंसा का दिव्य स्वर अनुगुंजित है । अहिंसा के प्रतिपक्ष हिंसा को धिक्कारते हुए उन्होंने कहा है
"भय और हिंसा पाप का मूल है"
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अधमूलं भयं वधो ।
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