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उपदेष्टा उन ज्योतिर्मय आत्माओं के चरणों में वन्दना के पुष्प अर्पित करते हुए भारतीय दर्शन क्षितिज के सूर्य सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं -
"दिव्यम्रजो जिन! नमत् -त्रिदशाधिपाना - मुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान् । पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वा परत्र, त्वत्संगमे सुमनसो न रमन्त एव ।।"
भगवान को नमस्कार करते समय देवेन्द्रों के मुकुट में लगी हुई फूल-मालाएँ प्रभु के चरणों में आ गिरती हैं । यह कोई असाधारण बात नहीं है । . जब कोई नमन करने के लिए मस्तक झुकाता है, तो फूल मालाएँ नीचे गिर ही जाती हैं | वे फूल-मालाएँ रत्नों से जड़े मुकुटों को छोड़कर प्रभु-चरणों में क्यों आ गिरती हैं? उन्हें मुकुट जैसे सुन्दर स्थान पर रहना क्यों नहीं पसन्द आता? यह एक प्रश्न है । आचार्य श्री का उत्तर है-वे सुमन हैं । और जो सुमन (अच्छे मन वाले) होते हैं, उनका प्रभु-चरणों में अगाध प्रेम होता ही है ।
श्लोक में प्रयुक्त 'सुमन' शब्द के दो अर्थ हैं-एक पुष्प और दूसरा अच्छे मन वाले सज्जन पुरुष । सज्जन व्यक्ति प्रभु के चरणों से प्रेम करते ही हैं। अत: नाम-साम्य के कारण सुमन 'पुष्प भी प्रभु के चरणों से अनुराग रखते हैं |
___ यह मानव जीवन के विकास का दिव्य स्वरूप है । वीतराग अर्हन्त प्रभु भी तो मनुष्य ही हैं । वही शरीर है पंचभूत का । किन्तु शरीर का प्रश्न नहीं है। उस शरीर में जो अनन्त ज्योति प्रकाशित हुई है, उसका महत्त्व है । और, उसी महत्त्व के कारण मानव को सर्व श्रेष्ठ कहा गया है ।
भौतिक दृष्टि से देखा जाए, तो देवताओं का शरीर मनुष्य के शरीर से दिव्य है । लेकिन उनका आध्यात्मिक विकास इतनी ऊँचाई पर नहीं हो सका है, जितनी ऊँचाई मनुष्य छू लेता है । भौतिक-दृष्टि से देव भले ही भोग-साधनों एवं वैभव-ऐश्वर्य की दृष्टि से मनुष्य से अधिक सम्पन्न दिखाई देते हैं, परन्तु अध्यात्म-विकास में वे मानव से निम्न ही हैं । वे भोगों का परित्याग नहीं कर सकते । अतः आध्यात्मिक दृष्टि से मानव ही श्रेष्ठ है, उच्चतम है, देवों की अपेक्षा से ।
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