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________________ मेनका, तिलोत्तमा आदि देव जगत् की वेश्याएँ ही तो हैं । इन्द्र द्वारा उनसे ऋषियों को पथ भ्रष्ट करने की कथाएँ आज भी बड़े गौरव से वर्णित की जाती हैं। खेद है, धरती की वेश्याओं के भोग की कथाएँ स्वर्ग में भी पहुंच गई हैं। क्या यह नैतिक जीवन है? इस प्रश्न चिन्ह का धर्म - धुरन्धरों के पास क्या उत्तर है ? स्वर्ग का कोई देव मर जाता है, तो तत्कालीन उसकी देवियाँ नये जन्म लेने वाले देवता की उपभोग्य बन जाती हैं । इसका अर्थ है देवलोक में देवियों की स्थिति मात्र एक उपभोग्य सामग्री के रूप में ही है, उसका कोई नैतिक आधार नहीं है । सभ्य जगत् में इस नीतिहीन क्रिया-कलाप को किस नजर से देखा जाए, बुद्धिमान पाठक स्वयं सोच-समझ सकते हैं । इन देवियों से तो भारत के सभ्य समाज की नारियों की स्थिति ही अधिक ठीक है । यह है, स्वर्ग लोक का महिमान्वित आचार, जिसकी गाथाएँ गाते हुए आज धर्म-धुरन्धर थकते नहीं हैं । देवों की एक दशा वर्णित की है, वह यौवन की । जन्म काल से लेकर मृत्यु के अन्तिम क्षणों तक देव युवक ही बने रहे हैं । और, यह यौवन केवल वैषयिक सुखोपभोग के लिए ही प्राय: स्वीकृत है । मानव की यौवन दशा तो पुरुषार्थ, कर्म-योग, सेवा और धर्माराधना की दृष्टि से भी उपयुक्त है । इसपर से स्पष्ट है, देवों के यौवन की अपेक्षा मानव का यौवन, धर्म और समाज की दृष्टि से अधिक कल्याणकारी है । स्वर्ग में दास प्रथा भी है । जैन - पुराण और कुछ ग्रन्थ कहते हैं कि अभियोग्य देवता अपने स्वामी बड़े देवता की गुलामी करते हैं । स्वर्ग में पशु जाति नहीं है । अत: अभियोग्य देव ही घोड़े, हाथी के रूप में अपने को रूपान्तरित करके सवारी का काम करते हैं । आज सभ्य देशों में दास प्रथा समाप्त की जा चुकी है तथा की जा रही है, किन्तु देवलोक में यह घृणित प्रथा अनादि काल से चली आ रही है । क्या धरती पर से स्वर्गलोक में जाने वाले त्यागी - वैरागी महात्मा, साधु जन, उक्त अनाचारों के प्रति आवाज नहीं उठा सकते ? क्या आवाज उठाएँगे? वे स्वयं उसके उपभोग में लिप्त हो जाते हैं । (३६३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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