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क्या यही देवत्व है ? और, यह आपको अपेक्षित है?
मानव -मस्तिष्क पर मानव सभ्यता के आदि काल से ही दैवी-जगत् का कभी कम, तो कभी ज्यादा प्रभाव रहा है । स्वर्ग के देवों के रंगीन सुख-भोगों के वर्णन प्राय: सभी धर्मों के साहित्य में अंकित हैं, जो मनुष्य के हृदय में एक ऐसा प्रलोभन पैदा करते आए हैं, जिसे साफ करना काफी मुश्किल रहा है ।
मैं विचार करता हूं, उक्त वर्णन तथ्य और औचित्य के साथ कितना सम्बन्ध रखते हैं ? और उससे मानव-जाति का कल्याण अधिक हुआ है या अकल्याण?
देवताओं के वर्णन में लिखा मिलता है, कि वे पुष्प शय्या में जन्म लेते हैं । अत: उनकी न कोई माँ होती है, और न कोई पिता । माता-पिता ही नहीं, तो भाई-बहन आदि का तो अस्तित्व ही कहाँ रहता है ? विवाह की नैतिक पद्धति के आधार पर वहाँ पति-पत्नी के सम्बन्ध भी नहीं हैं । स्पष्ट है, दैवी-जगत् में परिवार जैसी कोई चीज नहीं है । और यह परिवार हीनता पशुपक्षी जगत् के साथ कुछ अंश में मिल जाती है । परिवार और उससे सम्बन्धित प्रेम और कर्तव्य मानव-जगत् को ही विशिष्टता प्रदान करते हैं ।
देवों के वर्णन में देवताओं की अपेक्षा देवियों की अल्पायु होती है । इस प्रकार एक देव अनेक नई-नई देवियों का उपभोक्ता बनता जाता है, साथ ही एक देव के अनेक देवियों की चर्चा भी की गई है | यह भूमण्डल के राजा - महाराजाओं, श्रेष्ठियों के बहु-विवाह की प्रथा से सम्बन्धित है, जो विकसित सभ्यता की दृष्टि में एक निकृष्टतम प्रथा है |
देवलोक में अपरिग्गहिया नाम से वेश्याओं का भी वर्णन है । जैन-साहित्य में यह वर्णन उपलब्ध है । साथ ही हिन्दू-साहित्य में भी उर्वशी,
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