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ही नवजागरण की एक नूतन स्फूरणा आ गई थी। यही कारण है कि ठीक उसी काल में चीन देश में लाओ त्से एवं कन्फ्युशियस तथा ईरान की धरती पर जरथुस्त जैसे महान चिन्तकों का आविर्भाव हुआ था | महावीर और बुद्ध समाज के नवनिर्माण की दिशा में जो कुछ यहां सोच रहे थे, और कह रहे थे, कुछ हेर-फेर के साथ वही चिन्तन और वही कथन चीन और ईरान की धरती के महान चिन्तक भी कह-सुन रहे थे । अत: ईसा पूर्व छठी शताब्दी केवल भारत के लिए ही नहीं, समग्र विश्व के लिए एक सुन्दर वरदान थी । इस युग में भारतीय विचार-जगत में क्रान्ति की एक अभिनव उथल-पुथल देखने को मिलती है । सामाजिक एवं धार्मिक नवचेतना के इसी युग में महावीर जैसे विराट् व्यक्तित्व का इस देश में जन्म हुआ, जिसने संसार को अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह का संदेश दिया जो भव-व्याधि से पीड़ित दिशाहीन मानव के लिए वरदान हो गया ।
भगवान महावीर की संघीय जीवन-पद्धति इतनी सुव्यवस्थित एवं सुन्दर थी कि जिसका तत्कालीन आसपास के अन्य समाजों पर भी सीधा प्रभाव पड़ा था । वस्तुत: भगवान् महावीर ने किसी नई धर्मपरंपरा का आविष्कार नहीं किया था, बल्कि तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त रुढ़ि, कुरीति और अन्धविश्वासों के प्रतिकार का मार्ग ही प्रशस्त किया था । जन्मगत श्रेष्ठता एवं कनिष्ठता के आधार पर प्रचलित जातिवाद का सर्वप्रथम विरोध महावीर ने किया। महावीर का कहना था - जन्म से नहीं, अच्छे-बुरे कर्मों से ही मनुष्य अच्छा-बुरा बनता है | धरती पर के समग्र मानवों की जाति एक ही है । वर्ण से रंगरूप से अच्छी-बुरी आकृति का तत्त्वत: कुछ अर्थ नहीं है | उनका महान् घोष था - 'न दीसई जाइं विसेसे कोई । भगवान केवल उपदेश देकर ही न रह गए | अनेक शूद्र जाति के नर ओर नारी उनके संघ में दीक्षित हुए थे । यहाँ तक कि हरिकेश जैसे चाण्डालों को भी उनके संघ में वही आदर का स्थान प्राप्त था, जैसा कि श्री इन्द्रभूति गौतम जैसे कुलीन ब्राह्मणों को ।
__ महावीर के युग में मातृजाति की स्थिति भी बड़ी दयनीय थी । वह केवल एक भोग्य वस्तु थी, पति की पशुधन की तरह ही एक मूक संपत्ति । क्रीतदासी जैसा जीवन या नारी का अपने ही परिवार में | न वह पवित्र माने जाने वाले धर्मशास्त्र पढ़ सकती थी और न वह धर्माराधना के लिए उच्चतम व्रत आदि की ही अभीष्ट उपासना कर पाती थी | महावीर ने कहा - ' स्त्री पुरुष में देहाकृति के अतिरिक्त मूलत: कोई तात्त्विक अन्तर नहीं है । स्त्री भी पुरुष
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