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चूंकि महावीर ने तथा महावीर के उत्तराधिकारियों ने उन सबके मूल में प्रजाहित देखा था । यह सब प्रजा के अर्थात् पीड़ित जनता के हित के लिए था । भगवान् महावीर जनहित के लिए अनेक बार सागर जैसी विशाल गंगा को उत्तर से दक्षिण में और दक्षिण से फिर उत्तर में हजारों साधुसाध्वियों के साथ पार करते रहे; फिर भी पाप से अबद्ध रहे | भ. महावीर के प्रथम गणधर गौतम गुरु ने रहे; फिर भी पाप से अबद्ध रहे । भ. महावीर के प्रथम गणधर गौतम गुरु ने अपने लब्धिबल से, जिसका प्रयोग निषिद्ध है, पंदरह सौ तीन भूखे तापसों को खीर भोजन से तृप्त कर दिया था । स्पष्ट है, और कुछ भी मंगल या अमंगल नहीं है। जिसमें जितनी-जितनी क्षुद्रता, वैयक्तिक अहंता है उतनी-उतनी पाप की कालिमा है और जितनी जितनी व्यापकता है, सार्वजनिक हितबुद्धि एवं हितसृष्टि है, उतनी उतनी पुण्य की पवित्रता है । इसीलिए महावीर ने कहा था: "असंविभागी न हु तस्स मोक्खो ।" जो प्राप्त साधनों का जनहित में सबके लिए सम्यक् विभाग एवं वितरण नहीं करता है, वह बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता | इसका अर्थ है-व्यक्तिनिष्ठता ही बन्धन है । एकलखोरापन ही पाप है । गीतादर्शन के महान् गायक श्रीकृष्ण भी कहते हैं जो व्यक्ति केवल अपने लिए ही सुख-साधन जुटाता है, वह पाप का भोग करता है । 'अघं स केवलं भुंक्ते, यः पचत्यात्मकारणात् ।'
फरवरी १९७६
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