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________________ ते हैं। प्रश्न साधन नहीं जुटाने का नहीं है। यह तो तब होता, जब आदमी जड़ होता, पत्थर या सूखे लक्कड जैसा कुछ होता । न चेतना होती, और न कोई अभीप्साएँ, अपेक्षाएँ होतीं। जड़ पत्थर को क्या विकल्प है ? क्या चिन्ता है ? परन्तु आदमी तो आदमी है, सचेतन है। और सचेतन भी विशिष्ट श्रेणी का । अतः उसे अपेक्षाएँ भी सर्वाधिक हैं और विशिष्ट हैं। अपेक्षाएँ और अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए श्रम, संघर्ष एवं प्रयत्न भी यथास्थिति उपस्थित होते ही रहे हैं, होते ही रहेंगे। इसलिए प्रश्न जीवन के अस्तित्व को क्या दिशा देनी चाहिए, यह है, और यह दिशा अच्छाई की होनी चाहिए । कैसी अच्छाई ? मानव सामाजिक प्राणी है। वह जंगल का कोई भूत-प्रेत नहीं है, जो अकेला भटकता फिरता है। आचार्य उमास्वाति के शब्दों में वह 'परस्परोपग्रह' है, वह आसपास से, समाज से समय पर कुछ लेता भी है, और देता भी है, यह लेना-देना कभी गलत हो जाता है। बस, यह नहीं होना चाहिए। जो भी लेना-देना हो, अच्छा हो। अच्छा का अर्थ है, वह शुभ हो, मंगलमय हो। कर्म का प्राणतत्त्व भाव में है। शुभ भावना से जनहित में जो भी कुछ किया जाता है, वह सब अच्छाई है। इस अच्छाई में 'स्वहित' भी आ जाता है। अच्छा हास्य वही है, जिस पर आमने-सामने के दोनों मुख कमल खिल उठें। दोनों ओर ही नहीं, आसपास में दूर दूर तक वाहवाह के कहकहे भी गूँज उठें। यह कहकहे देश और काल की सीमाओं को लाँघते हुऐ हजारों हजार मीलों और हजारों हजार वर्षों को पार करते जाएँ। तीर्थंकर ऋषभदेव, चक्रवर्ती भरत, मर्यादापुरुषोत्तम राम, कर्मयोगी कृष्ण, वीतराग महावीर और करुणावतार बुद्ध आदि की अच्छाइयों की सुगन्ध आज भी हजारों वर्षों बाद जनमन में महक रही है। अतः जो भी करो, पहले सोच लो, वह केवल व्यक्तिगत भोग की बंद तलैया का गंदा पानी तो नहीं है। वह 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' की पवित्र गंगा बनते ही अनन्त कल्याणरूप क्षीरसागर की ओर प्रवाहित हो जाता है, जहाँ भगवत्तत्त्व का शिव, अचल, अरुज, अक्षय, अनन्त एवं अव्याबाधरूप से निवास है । प्रकाश है। कर्म विष ही नहीं, अमृत भी है भारतीय दर्शन में वह युग दुर्भाग्य का युग था, जब दर्शन की यह चिन्तनधारा चली कि कर्म पाप है । जीवन की श्रेष्ठता कर्म में नहीं, अकर्म में है। (८१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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