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जीवन कैसा हो ?
आजकल शिक्षित युवकजनों की ओर से एक प्रश्न प्राय: पूछा जाता है कि जीवन क्या है, जीवन की परिभाषा क्या है ? मुझसे भी जब तब ऐसा ही प्रश्न पूछा गया है। लगता है, युवकसमाज में जीवन को नए सिरे से जानने की एक जिज्ञासा अँगड़ाई ले रही है।
प्रश्न क्या का नहीं, कैसे का है
मेरे विचार में प्रश्न में 'क्या' नहीं, 'कैसा होना चाहिए। जीवन क्या है ? दर्शन - शास्त्र के अनुसार विश्व का हर प्राणी कीट से लेकर किरीटधारी नरेन्द्र एवं देवेन्द्र तक सभी जीव हैं, और जो जीव हैं, उन सबके पास जीवन है। जीव की व्याख्या भी यही है कि जीवति इति जीव:- जो जीता है, वह जीव है। इस दृष्टि से जीवन के अस्तित्व का प्रश्न सामान्य बन जाता है। अत: वह अपने अस्तित्व के सम्बन्ध में किसी विशेष प्रश्न के लिए जगह नहीं रखता है। किसी भी शरीरविशेष में पूर्वकृत अमुक कर्मानुसार अमुक काल तक बंदी के रूप में आबद्ध रहना ही जीवन है, दर्शन की दृष्टि में। अतः प्रश्न 'जीवन क्या है' इसके बदले में यह होना चाहिए कि 'जीवन कैसा होना चाहिए ? जीवन का अस्तित्व तो है, पर उसका उपयोग कैसा हो किस दिशा में हो, यह समझना हमारे लिए अतीव आवश्यक है । और यह प्रश्न दर्शन के क्षेत्र से उतर कर सीधा धर्म के क्षेत्र में आ खड़ा होता है । यहाँ धर्म का अर्थ पंथ नहीं; अपितु जीने की एक विशेष पद्धति है ।
जीवन को अच्छा बनाइए
कैसा भी क्षण हो, एक दिन मानव जन्म ले लेता है, धरती पर आ जाता है। ज्यों ही शरीर कुछ विकसित होता है, जीवन की भाग-दौड़ शुरु हो जाती है, हलचल चालू हो जाती है। जीवन की कुछ अपेक्षाएँ हैं, खाना है, पीना है, पहनना है, रहना है और भी कुछ चीजें हैं। उन सबके लिए साधन जुटाने पड़
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