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________________ दास-दासियों से उनकी योग्य शक्ति से अधिक काम लेना, उन्हें समय पर भक्तपान अर्थात् भोजन न देना, मारना-पीटना एवं कैद में डाल देना, अंग-भंग कर देना आदि को महावीर ने अहिंसाव्रती गृहस्थ के लिए निषिद्ध करार दिया था। इतने भर से भी उस युग में कितनी राहत मिली होगी निरीह दासनारी को और उसके वैध अवैध पुत्र-पुत्रियों को | महावीर सन्नारियों की मुक्त कण्ठ से स्तवना करते हैं । राजीमती के कथा प्रसंग पर उत्तराध्ययन सूत्र में उन्होंने कहा है - राजीमती शीलवती थी, बहुश्रुत थी । जितेन्द्रिय थी, दृढ़ संकल्प की धनी थी। वह सुशील, सुदर्शना तथा सर्व लक्षण संपन्न थी | राजीमती ने कामोन्मत्त हुए तरुण राजर्षि रथनेमि को निर्भयता के साथ वह उपदेश दिया है, जिसकी तुलना केवल ज्ञानी वीतराग सर्वज्ञों के उपदेश के साथ की जा सकती है | महावीर ने कहा है - राजीमती के उपदेश वचनों से पथभ्रष्ट होता वह उन्मत्त रथनेमि वैसे ही धर्मपथ पर पुन: आरूढ हो गया,जैसे अंकुश के प्रहार से मदोन्मत्त गजराज ! 'अंकुसेण जहा ना गो धम्मे संपडिवाइओ !' दानदात्री के रूप में महावीर ने आगम साहित्य में यत्रतत्र नारी को ही उपस्थित किया है । वस्तुत: महावीर की दृष्टि में नारी गृहदेवी है, राक्षसी नहीं। ठीक ही है- माँ भी एक नारी है । और नारी यदि राक्षसी है, तो माँ भी राक्षसी है । और राक्षसी के पुत्र भी फिर राक्षस ही होंगे, देव कहाँ से होंगे । तीर्थंकरों की माताएँ राक्षसी नहीं, देवी हैं, जिनकी कोख से वे देवाधिदेव अवतरित हुए, जिनके चरणों में पौराणिक कथानुसार स्वर्ग के देव एवं देवेन्द्र भी श्रद्धावनत हो गए । महावीर के आगम साहित्य में नन्दा, धारिणी, कुन्ती, प्रभावती एवं द्रौपदी आदि नारियों को देवी के रूप में स्मरण किया है । भगवान् महावीर के परम भक्त मगध सम्राट श्रेणिक जैसे अपनी पत्नियों को देवानुप्रिया जैसे समादर के सम्बोधन से सम्बोधित करते हैं । जहाँ कहीं भी महावीर की शिक्षा ने प्रवेश किया है वहाँ नारी ने योग्य आदर ही पाया है, निरादर नहीं । बुद्ध और महावीर : एक अन्य अन्तर तथागत बुद्ध नारी को श्रमण धर्म की दीक्षा देने में काफी समय तक हिचकते रहे | प्रिय शिष्य आनन्द के अत्याग्रह पर गौतमी को भिक्षुणी होने के (७२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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