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__ अब तक के इतिहास के जिन क्षणजीवी क्षणों को अमरता मिली है, उसके निर्माता कालजयी तरुण ही हैं । मर्यादा पुरुषोत्तम राम भर तरुणाई में प्राप्त राज्य को ठुकरा कर निर्जन वनों की ओर चल पड़ते हैं । फूलों से भी अधिक कोमलांगी सीता महकते यौवन में. नंगे पैरों काँटों भरे पथ पर पति का अनुगमन करती है । कर्मयोगी कृष्ण तरुण ही हैं, जो कंस के साथ कंस के अत्याचारों को भी ध्वस्त कर ब्रज भूमि से सुदूर अज्ञात क्षेत्र में सोने की द्वारिका का निर्माण करते हैं, जंगल में मंगल रचाते हैं । महाश्रमण तीर्थंकर महावीर तीस वर्ष की तरुणाई के मादक क्षणों में ही स्वर्ण प्रासादों को त्याग कर, राज्यवैभव का मोह छोड़कर खूखार शेरों की दहाड़ों से गूंजते वनों में वज्रासन लगा ध्यानस्थ हो जाते हैं । तथागत बुद्ध कौन हैं ? वह सर्वविध सुख की छाया में पला तरुण राजकुमार ही तो है, जो अपने नवजात पुत्र राहुल को एवं उस युग की अनिन्द्य सुन्दरी पत्नी यशोधरा को त्याग कर रात के गहरे अंधेरे में सत्य की खोज के लिए जंगलों की राह पकड़ता है | तरुण भोग का नहीं, त्याग का प्रतीक है । समय पर सर्वस्व ठुकरा देने की अपूर्व क्षमता के उदाहरण तरुणाई में ही मिले हैं । इतिहास साक्षी है, तरुण क्या था ? और अब भविष्य बताएगा, आज का तरुण क्या है ? जो अपने मन-मस्तिष्क पर, अपने हाथ पैरों पर, अपने स्वयं करणीय कर्म पर विश्वास न कर, पूर्वजों के समागत ऐश्वर्य पर मरता है, उसे पाने के लिए हायतौबा मचाता है, वह तरुण नहीं, कोई और होगा । तरुण बासी नहीं ताजा खाना खाता है । वह खाना ही नहीं, खिलाना भी जानता है । वह लेना नहीं, देना भी जानता है, यदि यह कहूँ तो अधिक सत्य होगा कि वह देना ही जानता है । त्याग ही उसका आदर्श जो ठहरा |
बालक कर्मक्षेत्र का सिपाही अभी इसलिए नहीं, कि वह अभी तन-मन दोनों से अक्षम है, अबोध है । वृद्ध इसलिए नहीं कि जर्जर शरीर मन का साथ नहीं देता | अत: वह चाह कर भी चाह को ठीक तरह राह नहीं दे पाता । अस्तु, नव निर्माण से संबंधित समग्र कर्म का दायित्व बीच में खड़े तरुण पर है । अत: तरुण के जपयोग का बीजमंत्र है चरैवेति....चरैवेति....चरैवेति । चले चलो.....चले चलो.... चले चलो । जो चलता है, वह पाता है । आज तक मुंह लटकाये मुहर्रमी सूरत में बैठे रहने वालों को कभी कोई मंजिल मिली नहीं है । पिपीलिका, नन्हीं सी चींटी चलते चलते सौ योजन तक पहुँच सकती है । परन्तु बिना चले, बिना उड़े, पक्षिराज गरुड एक कदम का पथ भी पार नहीं कर सकता है । 'अगच्छन् वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति ।'
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