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शब्दकोष में कहीं होते ही नहीं । सम्भव है, चोट या ठोकर खाकर वह कभी कहीं गिर भी जाए, परन्तु तत्काल धूल झाड़कर फिर खड़ा हो जाता है वह, निर्धारित कर्म-समर में जूझने के लिए | कितना ही काम हो, वह दिन भर के तन तोड़ श्रम के बाद ताजादम हँसता हुआ जाता है बिस्तर पर सोने के लिए । हारा थका मुर्दे की तरह निर्जीव खाट पर नहीं जा पड़ता है तरुण । प्रात: काल क्षितिज पर सूरज की सुनहली किरणों के चमकने से पूर्व ही उठ खड़ा होता है एक मदभरी मस्ती की अंगड़ाई लेते हुए । बिल्कुल ताजादम । मन-मस्तिष्क स्वच्छ और स्वस्थ । और फिर जुट पड़ता है आज का काम आज ही पूरा करने के लिए | आज का काम कल पर छोड़े, वह कैसा तरुण । हर सुबह सफर, हर शाम सफर । तरुण का जीवन कर्म है और कर्म ही जीवन है । और कर्म भी ऐसा, जो देखे दाँतों अंगुली दबा ले, तदनुरूप स्वयं भी कुछ करने की प्रेरणा ले | तरुण वह जो 'ज्योति से ज्योति जलाता चले।'
___ तरुण समय की गति से, धारा से कट कर दूर अलग थलग पड़ा नहीं रह सकता। वह परम्परा और अपरम्परागत सभी जीवन-मूल्यों का विचार-पद्धतियों का सांगोपांग विश्लेषण करता है, चिंतन की कसौटी पर नि:संकोच भाव से परीक्षण करता है, और जो उनमें सजीव एवं सृजनशील हों, उनको आदर के साथ जीवन में उतारता है, भविष्य की ओर आगे बढाता है ।
और जो निर्जीव, निष्प्राण, अनुपयोगी, समय की गति से पिछड़ी हुई पद्धतियाँ हैं, प्रथाएँ हैं उन्हें निर्द्वन्द्वभाव से ध्वस्त कर दूर फेंक देता है |
तरुण न पुराने से बँधता है, न नए से । न अपनेपन से बँधता है, न परायेपन से । उसका जीवनदर्शन नये-पुराने के, अपने-पराये के बन्धनों से परे एक मात्र लोक-मंगलकारी सत्य से सम्बन्धित होता है । तरुण को देह की उफनती गर्मी के साथ मन की दहकती गर्मी भी अपेक्षित है । मन की गर्मी, अर्थात् मनन की गर्मी | जीवन के लिए, जीवन के नवनिर्माण के लिए जैसे ठंडा रक्त घातक है, वैसे ही ठंडा चिन्तन भी घातक है । हाँ, यह शत-प्रतिशत अपेक्षित है कि तरुणाई की गर्मी को सही दिशा एवं सही मर्यादा मिले । शरीर और मन की कोई भी गर्मी हो, यदि उसे सही दिशा एवं मर्यादा मिले तो वह धरती पर स्वर्ग की अवतारणा कर सकती है । अन्यथा ... अन्यथा वह अकेले व्यक्ति को ही नहीं, पूरे समाज एवं राष्ट्र को भी नरक की ओर ढकेल सकती है।
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