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शुभाशुभ व्यक्तित्व राम और रावण हैं, ये केवल इतिहास के दो व्यक्ति ही नहीं, अपितु शुभाशुभ रूप शाश्वत सत्य के दो प्रतीक हैं । एक प्रकाश है तो दूसरा अन्धकार, एक देवत्व की ज्योति है, तो दूसरा दानवता की प्रतिमूर्ति है । राम और रावण का निर्माण केवल एक जन्म की, उसी जन्म की प्रक्रिया नहीं है। रामत्व और रावणत्व के निर्माण की आधारभूमि, जो चिर अतीत से बनती आ रही थी, वह थी उनकी भावना, जिसे दर्शन की भाषा में संस्कार कह सकते हैं ।
दुर्भावना , विषवृक्ष अथवा जलता हुआ स्फुलिंग
व्यक्ति की चेतना कब, कैसे और क्या रूप ले ले, कौन सी दिशा पकड़ ले, इस सम्बन्ध में बहुत सजग रहने की अपेक्षा है | जब भी कोई गलत भाव मन में उभरे, तत्काल उसे बाहर निकाल फेंकना चाहिए । बात अपने में कितनी ही छोटी क्यों न हो, उसकी उपेक्षा निषिद्ध है । “अरे इसमें क्या है? कोई बात नहीं, मामूली सा प्रश्न है ! यों ही जरा मन इधर उधर खिसक गया है " - कितनी ही बार ऐसी ही कुछ शब्दावली का प्रयोग कर व्यक्ति झूठा आत्म सन्तोष पा लेता है, अपना क्षणिक समाधान कर लेता है । परन्तु भविष्य में इसका कितना भयंकर परिणाम आता है ? इस ओर गंभीरता के साथ लक्ष्य नहीं दिया जाता । विषवृक्ष का नन्हासा अंकुर भी उपेक्षणीय नहीं है, देखा जायेगा, करते करते एक दिन वह विराट वृक्ष बन सकता है | आग की नन्ही सी चिनगारी कभी अचानक हवा का झोंका पाकर दावानल बन सकती है । दावानल बनी कि फिर काबू से बाहर | पहाड़ों पर बन में आग लगी देखी है । गर्मी के दिनों में बांसों के परस्पर घर्षण से एक स्फुलिंग चमका और आग फैलनी शुरू हो गयी । फिर तो वन महीनों ही जलता रहता है | यही स्थिति अशुभ भावना की है । काम, क्रोध, मद, लोभ, घृणा, द्वेष आदि की साधारण सी घटना से ही कभी कभी दुर्भावना का वह स्फुलिंग प्रज्वलित हो जाता है, जो भविष्य में फैल कर दूर दूर तक परिवार, समाज एवं राष्ट्र आदि को ध्वस्त-विध्वस्त करता चला जाता है। रामायण काल की महारानी कैकेयी के मन में पुत्रमोह के कारण एक क्षुद्र स्वार्थ की वृत्ति पैदा हुई, और उसने अयोध्या के महान रघुवंश का चित्र ही बदल कर रख दिया। रावण के मन में सीता के लिए वासना का एक ऐसा विष-अंकुर पैदा हुआ कि उसने महान राक्षस जाति को मिट्टी में मिला दिया । द्रौपदी के द्वारा अज्ञानवश मजाक में कहा हुआ वह एक दो शब्दों का दुर्वचन ही था, जिसने दुर्योधन के मन को घायल कर दिया । परिणाम क्या हुआ ?
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