________________
अन्तर् में शुभ भावना के बीज बोते रहिए
क्रिया का मूल :भावना
__ बाहर में परिलक्षित होने वाली प्रत्येक क्रिया का मूल भावना में है । शरीर और वाणी की क्रियाएँ, चेष्टाएँ अपने आप में न शुभ हैं, न अशुभ हैं । क्योंकि शरीर और वाणी जड़ हैं | जड़ की क्रिया जड़ ही रहती है, सचेतन नहीं। अत: ये क्रियाएँ बन्ध की हेतु नहीं होतीं । बन्ध के लिए इनके मूल में होने वाली शुभ या अशुभ कोई-न-कोई भावना अपेक्षित है । भावना, वृत्ति, परिणति, परिणाम एवं अध्यवसाय सब एक ही अर्थ के द्योतक हैं । हम यहाँ स्पष्टता के लिए 'भावना' शब्द का प्रयोग कर रहे हैं।
अशुभ और शुभ भावना
व्यक्ति के अन्तर्मन में भावना सुप्त पड़ी रहती है | अनेकानेक जन्मों से उसका निर्माण होता आता है । व्यक्ति की चेतना ने कभी कोई गलत दिशा पकड़ ली तो वह काफी दूर तक अशुभ के रूप में प्रवाहित होती चली जाती है । और यह अशुभ भावना मानवता का अध:पतन कर देती है | किन्तु चेतना जब कभी सही दिशा पकड़ लेती है, तो वह काफी दूर तक जन्म जन्मान्तरों तक शुभ भावना के रूप में प्रवहमान होती रहती है | यह शुभ भावना मानवता का उत्थान, विकास एवं ऊर्ध्वमुखीकरण कर देती है । मानव ही क्या, प्रत्येक प्राणी का उत्थान तथा पतन, विकास तथा हास उसकी अपनी अन्दर में तरंगित होने वाली शुभ या अशुभ भावनाओं पर अवलंबित है |
दो प्रतीक
चेतना की शुभाशुभ भावनाओं से निर्मित होने वाले दो जगत्प्रसिद्ध
(५९)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org