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चाहिए था । यदि इस बात को इस तरह बदलकर कहता तो अच्छा होता । गलत या गलतढंग से बात कहने पर उसे पछतावा होता था ! कमान से तीर छूटने के बाद अब क्या हेरफेर हो सकता है, यह सत्य है, फिर भी यदि कुछ समझ आ जाए, गलती को गलती के रूप में महसूस कर ले, तो ठीक ही है । देर से ही सही, जगा तो । देर तो हुई, किन्तु आखिर तक अंधेर तो नहीं हुआ । प्रकाश की किरण फूटी तो सही ।
परन्तु आज के युग के सम्बन्ध में क्या कहूँ आज का आदमी तो न बोलने से पहले कुछ सोचता है और न बोलने के बाद । मुझे तो लगता है, आज का आदमी बोलता नहीं है, इन्सान की बोली में भौंकता है या रेंकता है । क्या ही अच्छा होता, यह भौंकना या रेंकना जानवर की बोली में होता |
___वाणी का अपव्यय या दुर्व्यय जितना आज हो रहा है, मुझे तो नहीं लगता कि ज्ञात इतिहास के पृष्ठों पर अतीत में कभी इतना हुआ हो । मनुष्य की जिह्वा पर सरस्वती का निवास बताया था कभी भारत के मनीषी पूर्वजों ने"जिह्वाग्रे च सरस्वती।' सरस्वती ज्ञान की पवित्र देवी है । खेद है, बोलने के नामपर अनर्गल प्रलाप करने वाले लोग सरस्वती का कितना प्रचण्ड अपमान कर रहे हैं । वाणी की देवी सरस्वती के सम्मान में लिखा गया वह सूत्र आज कहाँ रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया है, जिसमें लिखा था कि मनुष्य को मौन रहना चाहिए | अतीव आवश्यक स्थिति में बोलना ही हो तो सत्य बोलना चाहिए | और वह सत्य भी हित हो, साथ ही मित भी । हित का अर्थ है जनकल्याण और मित का अर्थ है अल्प से अल्प शब्दों में । जनहित के नाम पर आये दिन घंटों-पहरों बेलगाम उपदेश झाड़ना भारत की प्राचीन संस्कृति को अभीष्ट नहीं है । भारत के पुराने गुरुओं का तो कहना है 'मनुष्य का पवित्र एवं उच्च जीवन ही उसकी वाणी होना चाहिए | उसे जैसे कोई देखे और बस तत्काल तदनुसार कर्म में लग जाए वह दर्शक मनुष्य ।' यह है जीवन ही वाणी होने का अर्थ | इसीलिए हमारे यहाँ देव, गुरु के रूप में महापुरुषों के दर्शन करने की धर्म परम्परा है । प्रथम दर्शन है । दर्शन से ही समाधान हो जाना चाहिए । “गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं, शिष्यास्तु च्छिन्नसंशयाः।” सघन आवरण से आवृत्त चेतना वाले का यदि कुछ समाधान न हो, तो दर्शन के अनन्तर श्रवण का नम्बर आता है । हमारी संस्कृति कर्म की संस्कृति है । यहाँ का सज्जन कहा जानेवाला किसी के अभीष्ट हित के प्रश्न का उत्तर वाणी से नहीं हित संपादन के
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