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शब्द नहीं, कर्म
आज के इन्सान की जीभ इतनी अधिक लम्बी हो गई है कि कुछ पूछो नहीं । और यह लम्बाई निरन्तर बढ़ती ही जा रही है | कहाँ है इसकी सीमा-रेखा ? कुछ पता ही नहीं है किसी को !
आदिकाल से पशुओं की जीभ लम्बी रही है । कुत्तों की जीभ बाहर में लपलपाती रहती है । और भी अनेक पशु हैं, जिनकी जीभ बाहर में लपकती रहती है, उसमें से लार टपकती रहती है । परन्तु पशुओं की इस लम्बी जीभ से कुछ खतरा नहीं है । वह मूक है । यदि कभी वह लम्बी जीभ मुखर होती भी है तो कुछ भौंक लेती है, कुछ रेंक लेती है, और बस ।
किन्तु इन्सान की जीभ जब से लम्बी हुई है, धरती की शान्ति चौपट हो गई है | लम्बी जीभ वाले परिवार में हैं तो परिवार को, समाज में हैं तो समाज को और राष्ट्र में हैं तो राष्ट्र को नरक बनाए हुए हैं | महाकाली की तरह लम्बी जीभ लपलपाते हुए रक्तपिपासु जीव कब, क्या नया तूफान खड़ा कर देंगे, महाभारत का दृश्य उपस्थित कर देंगे, कुछ पता नहीं ।
एक युग था कभी, जब आदमी बोलने से पहले हिताहित सोचता था, और बाद में बोलता था । हिताहित की यथोचित उँटी करने के बाद जो जनहित में होता उसी की अभिव्यक्ति जिह्वा से होती थी, वह भी संक्षेप में, सूत्ररूप में | वाक्पात को वीर्यपात से भी अधिक हानिकर समझा जाता था । उनका वह सूत्र था - "वाक्पातो हि वीर्यपाताद् गरीयान् । "
एक युग वह भी था कभी, जब आदमी पहले तो नहीं सोच पाता था | बोलने का क्या परिणाम होगा ? पहले तो नहीं देख पाता था, परन्तु बोलने के बाद अवश्य कुछ सोचता था कि यह तो ठीक नहीं बोला गया । यह नहीं कहना
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